आधारम्—आश्रय; महत्-आदीनाम्—समस्त भौतिक सृष्टि आदि, महत्-तत्त्व; प्रधान—मुख्य; पुरुष-ईश्वरम्—सभी जीवात्माओं का स्वामी; ब्रह्म—परब्रह्म परमेश्वर; धारयमाणस्य—हृदय में धारण करके; त्रय:—तीनों; लोका:—लोक; चकम्पिरे—हिलने लगे ।.
अनुवाद
इस प्रकार जब ध्रुव महाराज ने समग्र भौतिक सृष्टि के आश्रय तथा समस्त जीवात्माओं के स्वामी भगवान् को अपने वश में कर लिया तो तीनों लोक हिलने लगे।
तात्पर्य
इस श्लोक में ब्रह्म शब्द महत्त्वपूर्ण है। ब्रह्मन् का अर्थ है, वह जो न केवल सबसे महान् है, वरन् जिसमें विस्तार की असीम शक्ति है। ध्रुव महाराज ब्रह्म को अपने हृदय में किस प्रकार आबद्ध कर सके? इस प्रश्न का उत्तर जीव गोस्वामी ने बहुत अच्छे ढंग से दिया है। उनका कथन है कि भगवान् ही ब्रह्म के मूल हैं, क्योंकि भौतिक अथवा आध्यात्मिक सब कुछ उनमें समाहित है, अत: उनसे बड़ा कोई नहीं है। भगवद्गीता में भी परमेश्वर कहते हैं, “मैं ब्रह्म का आश्रय हूँ।” अनेक पुरुष, विशेष रूप से मायावादी दार्शनिक, ब्रह्म को महानतम सर्व-प्रसरण-वस्तु मानते हैं, किन्तु इस श्लोक से तथा भगवद्गीता जैसे अन्य वैदिक साहित्य से प्रकट है कि ब्रह्म का आश्रय भगवान् हैं, जिस प्रकार कि सूर्य प्रकाश का आश्रय सूर्य का गोलक है। अत: श्रील जीव गोस्वामी कहते हैं कि भगवान् का दिव्य रूप समस्त महानता का बीज है, अत: वह परब्रह्म है। चूँकि परब्रह्म ध्रुव महाराज के हृदय में विद्यमान थे, अत: वे गुरुतम से भी बढक़र हो गये। इसीलिए उनके भार से तीनों लोक तथा वैकुण्ठ लोक की सारी वस्तुएँ हिलने लगीं।
महत्-तत्त्व ही समस्त ब्रह्माण्डों की, जिसमें सभी जीवात्माएँ हैं, चरम परिणति है। ब्रह्म इस महत्-तत्त्व का आश्रय है। इस सम्बन्ध में कहा गया है कि परब्रह्म प्रधान तथा पुरुष दोनों का स्वामी है। प्रधान का अर्थ है सूक्ष्म पदार्थ, यथा आकाश; तथा पुरुष का अर्थ है जीवात्माएँ जो सूक्ष्म भौतिक जगत में आकर फँस गई हैं; इन्हें परा प्रकृति तथा अपरा प्रकृति भी कह सकते हैं, जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है। कृष्ण ही दोनों प्रकृतियों के नियन्ता हैं, अत: वे प्रधान तथा पुरुष के स्वामी हैं। वैदिक मंत्रों में भी परब्रह्म को अन्त:-प्रविष्ट: शास्ता कहा कहा है। इससे यह सूचित होता है कि श्रीभगवान् प्रत्येक वस्तु में प्रवेश करने वाले तथा प्रत्येक वस्तु पर नियंत्रण रखने वाले हैं। ब्रह्म संहिता से (५.६५) भी इसकी पुष्टि होती है। अण्डान्तरस्थ परमाणुचयान्तरस्थं—उसका न केवल ब्रह्माण्डों में, वरन् प्रत्येक परमाणु में प्रवेश है। भगवद्गीता (१०.४२) में कृष्ण यह भी कहते हैं—विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नम्। भगवान् प्रत्येक वस्तु में प्रवेश करके उसका नियमन करते हैं। अपने हृदय में परम पुरुष के निरन्तर साहचर्य से ध्रुव महाराज ब्रह्म के समान हो गये और इस प्रकार सबसे भारी हो गये जिससे सारा ब्रह्माण्ड काँपने लगा। निष्कर्षत: ऐसा व्यक्ति जो सदा अपने हृदय में कृष्ण के दिव्य रूप का ध्यान करता है, वह अपने कार्यों से सारे विश्व को चकित कर सकता है। यही योग की सिद्धि है, जैसाकि भगवद्गीता (६.४७) में पुष्टि हुई है—योगिनामपि सर्वेषाम्—सभी योगियों में भक्तियोगी सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि वह अपने हृदय में श्रीकृष्ण का निरन्तर चिन्तन करता है और दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा रहता है। सामान्य योगी आश्चर्यजनक भौतिक कार्य कर सकते हैं, जिन्हें अष्ट सिद्धि कहा जाता है, किन्तु भगवान् का शुद्ध भक्त इन सिद्धियों से बढक़र ऐसे कार्य कर सकता है, जिससे सारा ब्रह्माण्ड दहल जाय।
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