श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 80
 
 
श्लोक  4.8.80 
तस्मिन्नभिध्यायति विश्वमात्मनो
द्वारं निरुध्यासुमनन्यया धिया ।
लोका निरुच्छ्‌वासनिपीडिता भृशं
सलोकपाला: शरणं ययुर्हरिम् ॥ ८० ॥
 
शब्दार्थ
तस्मिन्—ध्रुव महाराज; अभिध्यायति—पूर्ण मनोयोग से ध्यान करते हुए; विश्वम् आत्मन:—ब्रह्माण्ड का पूर्ण शरीर; द्वारम्— दरवाजे, छेद; निरुध्य—बन्द करके; असुम्—प्राण वायु; अनन्यया—अविचल भाव से; धिया—ध्यान; लोका:—सभी लोक; निरुच्छ्वास—श्वास लेना रोककर; निपीडिता:—दम घुटने से; भृशम्—शीघ्र; स-लोक-पाला:—विभिन्न लोकों के समस्त देवता; शरणम्—शरण; ययु:—ग्रहण की; हरिम्—भगवान् की ।.
 
अनुवाद
 
 जब ध्रुव महाराज गुरुता में भगवान् विष्णु अर्थात् समग्र चेतना से एकाकार हो गये तो उनके पूर्ण रूप से केन्द्रीभूत होने तथा शरीर के सभी छिद्रों के बन्द हो जाने से सारे विश्व की साँस घुटने लगी और सभी लोकों के समस्त बड़े-बड़े देवताओं का दम घुटने लगा। अत: वे भगवान् की शरण में आये।
 
तात्पर्य
 जब सैकड़ों व्यक्ति किसी विमान में बैठे रहते हैं, तो वे व्यष्टि होकर भी हजारों मील की चाल से उडऩे वाले वायुयान के वेग में हिस्सा बँटाते हैं, इसी प्रकार जब हम इकाई शक्ति को समग्र शक्ति के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तो इकाई शक्ति समग्र शक्ति के बराबर शक्तिमान हो जाती है। जैसा कि पिछले श्लोक में बताया गया है अपनी आत्मोन्नति के कारण ध्रुव महाराज में समग्र गुरुता आ गई जिससे सारी पृथ्वी दब गई। ऐसी आध्यात्मिक शक्ति से उनका व्यष्टि शरीर ब्रह्माण्ड का समग्र शरीर बन गया। अत: जब उन्होंने अपने मन को भगवान् में दृढ़ता से लगाने के लिए शरीर के सारे छिद्र बन्द कर लिये तो ब्रह्माण्ड की सारी इकाईयाँ—समस्त जीवात्माएँ जिनमें बड़े-बड़े देवता भी सम्मिलित हैं—भार के कारण घुटन का अनुभव करने लगीं। अत: वे सब भगवान् की शरण में आये, क्योंकि उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हो गया? ध्रुव महाराज द्वारा अपने शरीर के छेदों को बन्द करना और उससे सारे ब्रह्माण्ड के श्वास-द्वारों का रुद्ध होना एक ऐसा उदाहरण है, जो यह बताता है कि भक्त अपनी व्यक्तिगत भक्ति से सारे विश्व के लोगों को प्रभावित करके उन्हें भगवान् का भक्त बना सकता है। शुद्ध कृष्ण-चेतना से युक्त चाहे एक ही शुद्ध भक्त क्यों न हो वह सारे विश्व की चेतना को कृष्ण-चेतना में बदल सकता है। यदि हम ध्रुव महाराज के चरित्र को पढ़ें तो इसे समझ पाना जरा भी कठिन नहीं होगा।
 
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