श्रीभगवान् ने उत्तर दिया : हे देवो, तुम इससे विचलित न होओ। यह राजा उत्तानपाद के पुत्र की कठोर तपस्या तथा दृढ़निश्चय के कारण हुआ है, जो इस समय मेरे चिन्तन में पूर्णतया लीन है। उसी ने सारे ब्रह्माण्ड की श्वास क्रिया को रोक दिया है। तुम लोग अपने-अपने घर सुरक्षापूर्वक जा सकते हो। मैं उस बालक को कठिन तपस्या करने से रोक दूँगा तो तुम इस परिस्थिति से उबर जाओगे।
तात्पर्य
यहाँ पर प्रयुक्त एक शब्द संगतात्मा का अर्थ मायावादी दार्शनिकों द्वारा गलत ढंग से लगाया गया है। वे कहते हैं कि ध्रुव महाराज का आत्म परमेश्वर के परम आत्म से एक हो गया। वे इस शब्द द्वारा यह सिद्ध करना चाहते हैं कि इस प्रकार परमात्मा तथा व्यष्टि आत्मा संयुक्त हो जाते हैं और ऐसे एकीकरण के पश्चात् व्यष्टि आत्मा का पृथक् अस्तित्व नहीं रह जाता। किन्तु यहाँ पर भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि ध्रुव महाराज उनके ध्यान में इस प्रकार लीन थे कि विश्व चेतना स्वरूप वे स्वयं ध्रुव की ओर आकृष्ट हो गये। देवों को प्रसन्न करने के लिए वे स्वयं ध्रुव महाराज के पास जाकर उनको कठोर तपस्या से रोकना चाहते थे। मायावादी दार्शनिकों के इस कथन से इस निष्कर्ष की पुष्टि नहीं होती कि परमात्मा तथा आत्मा एकाकार हो जाते हैं। अपितु परमात्मा भगवान् ने ध्रुव महाराज को इस कठिन तपस्या से रोकना चाहा।
भगवान् को प्रसन्न कर लेने से सभी को प्रसन्न किया जा सकता है, उसी प्रकार जिस तरह कि पौधे की जड़ को सींच कर टहनी, पत्ती इत्यादि को तुष्ट किया जाता है। यदि मनुष्य भगवान् को अपनी ओर आकृष्ट कर सके तो स्वाभाविक है कि सारा संसार आकर्षित हो सकता है, क्योंकि कृष्ण ही सारे ब्रह्माण्ड के कारणस्वरूप हैं। सभी देवता श्वासरोध से पूरी तरह मिट जाने के भय से आशंकित थे, किन्तु भगवान् ने विश्वास दिलाया कि ध्रुव महाराज भगवान् के परम भक्त हैं, वे ब्रह्माण्ड का संहार करने नहीं जा रहे। भक्त कभी भी अन्य जीवात्माओं से द्वेष नहीं करता।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध के अन्तर्गत “ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन” नामक आठवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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