हे भगवन्, आपके चरणकमलों के ध्यान से या शुद्ध भक्तों से आपकी महिमा का श्रवण करने से जो दिव्य आनन्द प्राप्त होता है, वह उस ब्रह्मानन्द अवस्था से कहीं बढक़र है, जिसमें मनुष्य अपने को निर्गुण ब्रह्म से तदाकार हुआ सोचता है। चूँकि ब्रह्मानन्द भी भक्ति से मिलनेवाले दिव्य आनन्द से परास्त हो जाता है, अत: उस क्षणिक आनन्दमयता का क्या कहना, जिसमें कोई स्वर्ग तक पहुँच जाये और जो कालरूपी तलवार के द्वारा विनष्ट हो जाता है? भले ही कोई स्वर्ग तक क्यों न उठ जाये, कालक्रम में वह नीचे गिर जाता है।
तात्पर्य
श्रवणं कीर्तनम् द्वारा भक्ति से जो दिव्य आनन्द प्राप्त होता है उसकी तुलना कर्मियों द्वारा स्वर्ग-प्राप्ति से होनेवाले सुख से या ज्ञानियों अथवा योगियों द्वारा निर्गुण परब्रह्म के साथ तादात्म्य से प्राप्य सुख से नहीं की जा सकती। योगी सामान्यत: विष्णु के दिव्य रूप का ध्यान धरते हैं, किन्तु भक्तजन न केवल उनका ध्यान करते हैं, वरन् उनकी वास्तविक सेवा में लगे रहते हैं। पिछले श्लोक में एक शब्द आया है भवाप्यय जो जन्म तथा मृत्यु का सूचक है। भगवान् जन्म-मृत्यु की शृंखला से छुटकारा दिला सकते हैं। यह सोचना भ्रामक है, जैसाकि एकेश्वरवादी कहते हैं, कि एक बार जन्म- मृत्यु से छुटकारा पाने पर मनुष्य परब्रह्म में लीन हो जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि भक्तों को श्रवणं कीर्तनम् से जो आनन्द प्राप्त होता है उसकी तुलना ब्रह्मानन्द से नहीं की जा सकती जो परब्रह्म में लीन हो जाने से दिव्य आनन्द की निर्विशेष धारणा या कल्पना मात्र है।
कर्मियों की स्थिति तो और भी गिरी हुई है। उनका लक्ष्य उच्च लोकों को प्राप्त करना रहता है। भगवद्गीता (९.२५) में कहा गया है—यान्ति देवव्रता देवान्—जो लोग देवताओं की पूजा करते हैं, वे स्वर्गलोक जाते हैं। किन्तु अन्यत्र भगवद्गीता (९.२१) में हम पाते हैं—क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति—ज्योंही पुण्यकर्मों का क्षय हो जाता है स्वर्ग को प्राप्त मनुष्यों को नीचे आना पड़ता है। वे आधुनिक अन्तरिक्ष यात्रियों के समान हैं, जो चन्द्रमा पर जाते हैं, किन्तु ज्योंही उनका ईंधन चुक जाता है उन्हें पृथ्वी पर पुन: उतरना पड़ता है। जिस प्रकार जेट-नोदन के बल पर चन्द्रमा या अन्य ग्रहों को जानेवाले आधुनिक अन्तरिक्ष-यात्रियों को ईंधन चुक जाने पर नीचे उतरना पड़ता है, उसी प्रकार यज्ञों तथा पुण्यकर्मों के बल पर स्वर्गलोक को प्राप्त करनेवाले लोगों को भी नीचे उतरना पड़ता है। अन्तकासि लुलितात्—मनुष्य काल रूपी तलवार से इस भौतिक संसार में अपने उच्च पद से काट कर गिरा दिया जाता है और वह फिर नीचे चला आता है। ध्रुव महाराज को बोध हुआ कि भक्ति का फल परम पूर्ण में तादाम्य होने से या स्वर्गलोग जाने से कहीं अधिक मूल्यवान है। पततां विमानात् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जो लोक स्वर्गलोक पहुँच जाते हैं, वे उन विमानों के तुल्य हैं, जो ईंधन चुकने पर नीचे गिर पड़ते हैं।
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