ध्रुव महाराज ने आगे कहा : हे अनन्त भगवान्, कृपया मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं उन महान् भक्तों की संगति कर सकूँ जो आपकी दिव्य प्रेमा भक्ति में उसी प्रकार निरन्तर लगे रहते हैं जिस प्रकार नदी की तरंगें लगातार बहती रहती हैं। ऐसे दिव्य भक्त नितान्त कल्मषरहित जीवन बिताते हैं। मुझे विश्वास है कि भक्तियोग से मैं संसार रूपी अज्ञान के सागर को पार कर सकूँगा जिसमें अग्नि की लपटों के समान भयंकर संकटों की लहरें उठ रही हैं। यह मेरे लिए सरल रहेगा, क्योंकि मैं आपके दिव्य गुणों तथा लीलाओं के सुनने के लिए पागल हो रहा हूँ, जिनका अस्तित्व शाश्वत है।
तात्पर्य
ध्रुव महाराज के कथन की मुख्य बात यह है कि वे शुद्ध भक्तों की संगति चाहते थे। भक्तों की संगति के बिना दिव्य भक्ति न तो पूर्ण हो सकती है, न आस्वाद्य ही। इसीलिए हमने अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ बनाया है। यदि कोई इस संघ से विलग रह कर कृष्णचेतना में प्रवृत्त होता है, तो समझें कि वह व्यामोह (भ्रम) में रह रहा है, क्योंकि ऐसा असम्भव है। ध्रुव महाराज के इस कथन से स्पष्ट है कि जब तक मनुष्य भक्त की संगति नहीं करता, तब तक उसकी भक्ति परिपक्व नहीं होती और भौतिक कार्यकलापों से पृथक् नहीं हो सकती। भगवान् का कथन है (भागवत ३.२५.२५)—सतां प्रसंगान् मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायना:। केवल शुद्ध भक्तों के संग में श्रीकृष्ण के वचन हृदय तथा कान को अच्छे लगते हैं। ध्रुव महाराज विशेष रूप से भक्तों की संगति चाहते थे। भक्ति-कार्यों में ऐसी संगति निरन्तर प्रवहमान नदी की तरंगों के तुल्य है। हमारे कृष्णभावनामृत संघ में चौबीसों घण्टे व्यस्त रहना पड़ता है; समय का हर पल भगवान् की सेवा में लगाया जाता है। यही भक्ति का अनवरत प्रवाह है।
कोई मायावादी चिन्तक हमसे प्रश्न कर सकता है, “आप लोग भक्तों की संगति में भले ही प्रसन्न रहें, किन्तु भवसागर को कैसे पार करेंगे?” ध्रुव महाराज का उत्तर है कि यह अधिक कठिन नहीं है। वे स्पष्ट कहते हैं कि इस सागर को सरलता से पार किया जा सकता है यदि कोई भगवान् के गुणों को सुनने के लिए पागल हो जाये—भवद्-गुण-कथा—जो कोई श्रीमद्भागवत, भगवद्गीता तथा चैतन्य चरितामृत से भगवान् की कथा को निरन्तर सुनना चाहता है और इसमें रस लेता है, जैसा कोई किसी नशे का आदी हो जाये, उसके लिए इस अज्ञान रूपी संसार को पार करना सरल है। भौतिक अज्ञान जगत की तुलना दहकती अग्नि से की गई है, किन्तु भक्त के लिए यह अग्नि कोई अर्थ नहीं रखती, क्योंकि वह तो पूर्णरूपेण भक्ति में लीन रहता है। यद्यपि यह भौतिक जगत दहकती अग्नि के सदृश्य है, किन्तु भक्त के लिए यह आनन्द से पूर्ण प्रतीत होता है (विश्वं पूर्ण-सुखायते)! ध्रुव महाराज के इस कथन का सार यह है कि भक्तों की संगति में की गई भक्ति आगे भी भक्ति के विकास का कारण बनती है। केवल भक्ति से ही कोई गोलोक वृंदावन नामक दिव्य लोक को जा सकता है और वहाँ भी केवल भक्ति ही भक्ति है क्योंकि इस लोक में तथा आध्यात्मिक जगत में भक्ति सम्बन्धी कार्य-कलाप एक-से होते हैं। भक्ति कभी बदलती नहीं। उदाहरण के लिए आम को लें। यदि किसी को कच्चा आम मिले तो वह आम ही होता है और जब यह पक जता है तब भी वह आम ही रहता है, किन्तु इसका स्वाद बढ़ जाता है। इसी प्रकार से एक भक्ति वह है, जो गुरु तथा शास्त्रों के निर्देश पर की जाती है और दूसरी आध्यात्मिक जगत की भक्ति है, जो भगवान् की संगति में की जाती है। किन्तु दोनों एक ही हैं; इनमें कोई परिवर्तन नहीं होता। अन्तर यही है कि एक अपरिपक्व अवस्था है और दूसरी पक्व होने के साथ ही अधिक स्वादयुक्त। केवल भक्तों की संगति द्वारा भक्ति को परिपक्व बनाया जा सकता है।
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