तत:—तत्पश्चात्; गन्ता असि—तुम जाओगे; मत्-स्थानम्—मेरे धाम को; सर्व-लोक—समस्त लोकों द्वारा; नम:-कृतम्— वन्दनीय होकर; उपरिष्टात्—ऊपर स्थित; ऋषिभ्य:—ऋषियों के लोकों की अपेक्षा; त्वम्—तुम; यत:—जहाँ से; न—कभी नहीं; आवर्तते—वापस आओगे; गत:—वहाँ जा करके ।.
अनुवाद
भगवान् ने आगे कहा : हे ध्रुव, इस देह में अपने भौतिक जीवन के पश्चात् तुम मेरे लोक को जाओगे जो अन्य समस्त लोकों के वासियों द्वारा सदैव वंदनीय है। यह सप्त-ऋषि के लोकों के ऊपर स्थित है और वहाँ जाने के बाद तुम को इस भौतिक जगत में फिर कभी नहीं लौटना पड़ेगा।
तात्पर्य
इस श्लोक में नावर्तते शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भगवान् कहते हैं, “तुम इस भौतिक जगत में पुन: नहीं आओगे, क्योंकि तुम मत्स्थानम् अर्थात् मेरे धाम पहुँच जाओगे।” अत: इसी भौतिक जगत में ध्रुवलोक भगवान् विष्णु का धाम है। इसके ऊपर क्षीरसागर है, जिसके भीतर श्वेतद्वीप है। यह भी स्पष्ट सूचित है कि यह लोक ऋषियों के सप्त लोकों के ऊपर स्थित है और चूँकि यह विष्णु लोक है, अत: अन्य समस्त लोकों द्वारा पूजित है। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रलय के समय इस ध्रुवलोक का क्या होगा? उत्तर सरल है। अन्य वैकुण्ठ लोकों की भाँति ध्रुवलोक बना रहता है। इस प्रसंग में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की टीका है कि निवर्तते शब्द ही इसका सूचक है कि यह लोक शाश्वत है।
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