मैत्रेय उवाच
इत्यर्चित: स भगवानतिदिश्यात्मन: पदम् ।
बालस्य पश्यतो धाम स्वमगाद्गरुडध्वज: ॥ २६ ॥
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा; इति—इस प्रकार; अर्चित:—सम्मानित एवं पूजित होकर; स:—परमेश्वर; भगवान्— भगवान्; अतिदिश्य—प्रदान करके; आत्मन:—अपना; पदम्—वासस्थान; बालस्य—जबकि बालक; पश्यत:—देख रहा था; धाम—उनके धाम को; स्वम्—अपनी, निजी; अगात्—वे लौट गये; गरुड-ध्वज:—भगवान् विष्णु जिनकी ध्वजा में गरुड़ का चिह्न है ।.
अनुवाद
मैत्रेय मुनि ने कहा : बालक ध्रुव महाराज द्वारा पूजित तथा सम्मानित होकर और उन्हें अपना धाम देकर भगवान् विष्णु गरुड़ की पीठ पर चढ़ कर ध्रुव के देखते-देखते अपने धाम को चले गये।
तात्पर्य
इस श्लोक से प्रतीत होता है कि भगवान् विष्णु ने ध्रुव महाराज को अपना ही धाम दे दिया। उनके धाम का वर्णन भगवद्गीता (१५.६) में हुआ है—यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।
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