श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  4.9.27 
सोऽपि सङ्कल्पजं विष्णो: पादसेवोपसादितम् ।
प्राप्य सङ्कल्पनिर्वाणं नातिप्रीतोऽभ्यगात्पुरम् ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह (ध्रुव); अपि—यद्यपि; सङ्कल्प-जम्—वांछित फल; विष्णो:—विष्णु का; पाद-सेवा—चरणकमल की सेवा करके; उपसादितम्—प्राप्त किया; प्राप्य—प्राप्त करके; सङ्कल्प—अपने दृढ़ निश्चय का; निर्वाणम्—संतुष्टि; न—नहीं; अतिप्रीत:— अत्यधिक प्रसन्न; अभ्यगात्—वापस गया; पुरम्—अपने घर को ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् के चरण-कमलों की उपासना द्वारा अपने संकल्प का मनवांछित फल प्राप्त करके भी ध्रुव महाराज अत्यधिक प्रसन्न नहीं हुए। तब वे अपने घर चले गए।
 
तात्पर्य
 नारद मुनि के उपदेशानुसार भगवान् के चरणकमलों की भक्तिपूर्वक पूजा करके ध्रुव महाराज ने मनवांछित फल प्राप्त किया। उनकी इच्छा थी कि वे अपने पिता, दादा, परदादा से भी बढक़र सम्मानित पद प्राप्त करें और यद्यपि यह बचकाना सा संकल्प था, क्योंकि ध्रुव महाराज एक नन्हें बालक थे, किन्तु भगवान् विष्णु इतने दयार्द्र हो उठे कि उन्होंने उनकी इच्छा पूरी कर दी। ध्रुव महाराज ऐसा उच्च वासस्थान चाहते थे कि जिसे उनके परिवार के अन्य किसी ने कभी प्राप्त न किया हो। फलत: उन्हें वह लोक प्रदान किया गया जिसमें भगवान् स्वयं निवास करते हैं और इस प्रकार उनका संकल्प पूरा हुआ। तो भी, जब ध्रुव महाराज घर लौट रहे थे तो वे अधिक प्रसन्न न थे, क्योंकि यद्यपि विशुद्ध भक्ति-भाव से भगवान् से किसी वस्तु की याचना नहीं की जाती, किन्तु उन्होंने अपने बाल-स्वभाव के कारण माँग प्रस्तुत की थी। इस प्रकार यद्यपि भगवान् ने उनकी इच्छापूर्ति की, किन्तु वे इससे अधिक प्रसन्न नहीं थे, अपितु उन्हें लज्जा लग रही थी कि भगवान् से उन्होंने जो कुछ माँगा था, वह उन्हें नहीं माँगना चाहिए था।
 
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