विदुर उवाच
सुदुर्लभं यत्परमं पदं हरे-
र्मायाविनस्तच्चरणार्चनार्जितम् ।
लब्ध्वाप्यसिद्धार्थमिवैकजन्मना
कथं स्वमात्मानममन्यतार्थवित् ॥ २८ ॥
शब्दार्थ
विदुर: उवाच—विदुर ने पूछा; सुदुर्लभम्—अत्यन्त दुर्लभ; यत्—जो; परमम्—परम; पदम्—पद, स्थान; हरे:—भगवान् का; माया-विन:—अत्यन्त वत्सल; तत्—उसके; चरण—चरणकमल; अर्चन—पूजन के द्वारा; अर्जितम्—उपलब्ध; लब्ध्वा—प्राप्त करके; अपि—यद्यपि; असिद्ध-अर्थम्—अपूर्ण; इव—मानो; एक-जन्मना—एक जीवन काल में; कथम्—क्यों; स्वम्— अपना; आत्मानम्—हृदय; अमन्यत—अनुभव किया; अर्थ-वित्—अत्यन्त चतुर होने से ।.
अनुवाद
श्री विदुर ने पूछा : हे ब्राह्मण, भगवान् का धाम प्राप्त करना बहुत कठिन है। इसे केवल शुद्ध भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि अत्यन्त वत्सल तथा कृपालु भगवान् केवल उसी से प्रसन्न होते हैं। ध्रुव महाराज ने इस पद को एक ही जीवन में प्राप्त कर लिया और वे थे भी बहुत बुद्धिमान और विवेकी। तो फिर वे प्रसन्न क्यों न थे?
तात्पर्य
सन्त विदुर की जिज्ञासा अत्यन्त प्रासंगिक थी। इस सम्बन्ध में अर्थवित् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जो उस व्यक्ति को बतानेवाला है, जो वास्तविकता तथा अवास्तविकता के बीच अन्तर करने में समर्थ हो। अर्थवित् को परमहंस भी कहते हैं। परमहंस प्रत्येक वस्तु के सार को ग्रहण करता है और जिस प्रकार हंस दूध तथा जल के मिश्रण में से दूध को ग्रहण कर लेता है उसी प्रकार परमहंस भी समस्त सांसारिक बाह्य वस्तुओं का परित्याग करते हुए श्रीभगवान् को ही अपना जीवन-आधार बनाता है। ध्रुव महाराज इसी कोटि के थे और अपने संकल्प से उन्होंने मनवांछित फल भी प्राप्त कर लिया था, किन्तु फिर भी जब वे घर लौट आये तो अधिक प्रसन्न न थे।
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