श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  4.9.29 
मैत्रेय उवाच
मातु: सपत्‍न्या वाग्बाणैर्हृदि विद्धस्तु तान् स्मरन् ।
नैच्छन्मुक्तिपतेर्मुक्तिं तस्मात्तापमुपेयिवान् ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय मुनि ने उत्तर दिया; मातु:—अपनी माता की; स-पत्न्या:—सौत के; वाक्-बाणै:—कटु वचनों के तीरों से; हृदि—हृदय में; विद्ध:—धँसा हुआ; तु—तब; तान्—उन सबको; स्मरन्—स्मरण करते हुए; न—नहीं; ऐच्छत्—इच्छा की; मुक्ति-पते:—भगवान् से, जिनके चरणकमल मुक्ति प्रदाता हैं; मुक्तिम्—मोक्ष; तस्मात्—अत:; तापम्—शोक; उपेयिवान्— प्राप्त हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय ने उत्तर दिया : ध्रुव महाराज का हृदय, जो अपनी विमाता के कटु वचनों के बाणों से बिद्ध हो चुका था, अत्यधिक संतप्त था; अत: जब उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया, तो वे उसके दुर्व्यवहार को नहीं भूल पाये थे। उन्होंने इस भौतिक जगत से वास्तविक मोक्ष की माँग नहीं की, वरन् अपनी भक्ति के अन्त में, जब भगवान् उनके समक्ष प्रकट हुए तो वे अपनी उन भौतिक याचनाओं (माँगों) के लिए लज्जित थे, जो उनके मन में थीं।
 
तात्पर्य
 इस महत्त्वपूर्ण श्लोक की व्याख्या अनेक धुरन्धर टीकाकारों ने की है। मनवांछित जीवन उद्देश्य प्राप्त करके भी ध्रुव महाराज क्यों प्रसन्न न थे? शुद्ध भक्त सभी प्रकार की भौतिक इच्छाओं से दूर रहता है। भौतिक जगत में मनुष्य की इच्छाएँ प्राय: आसुरी होती हैं। कोई किसी को अपना शत्रु समझता है; कोई शत्रु से बदला लेने की सोचता है; कोई सर्वोच्च नेता बन जाना चाहता है, तो कोई इस जगत का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति बनना चाहता है। इस प्रकार वह अन्य सबों से स्पर्धा करता है। भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में इसे आसुरी कहा गया है। शुद्ध भक्त भगवान् से कुछ भी नहीं माँगता। उसे एकमात्र यही चिन्ता रहती है कि वह निष्ठापूर्वक और गम्भीरता से भगवान् की सेवा करे। भविष्य में क्या होगा, इसकी उसे तनिक भी चिन्ता नहीं रहती। मुकुन्द माला स्तोत्र के लेखक राजा कुलशेखर अपनी प्रार्थना में कहते हैं, “हे भगवन्! मुझे इस संसार में इन्द्रियतृप्ति वाले किसी पद की इच्छा नहीं है। मैं तो केवल आपकी सेवा में निरन्तर संलग्न रहना चाहता हूँ।” इसी प्रकार भगवान् चैतन्य ने भी अपने शिक्षाष्टक में प्रार्थना की है, “हे भगवन्! मुझे न तो धन की तनिक इच्छा है, न मुझे भौतिक अनुयायी चाहिए और न भोगने के लिए सुन्दर पत्नी चाहिए। मुझे तो केवल एक ही वस्तु चाहिए और वह है जन्म-जन्मांतर आपकी सेवा।” भगवान् चैतन्य ने मुक्ति तक के लिए प्रार्थना नहीं की।

इस श्लोक में मैत्रेय ने विदुर के प्रश्न का उत्तर दिया है कि ध्रुव महाराज अपनी विमाता के प्रति प्रतिशोध-भाव से प्रेरित होकर न तो मुक्ति के विषय में सोच पाये और न वे मुक्ति के सम्बन्ध में कुछ जानते थे। अत: वे मुक्ति को जीवन का उद्देश्य बना सकने में असफल रहे। किन्तु शुद्ध भक्त तो मुक्ति की कामना भी करता नहीं। उसकी आत्मा तो भगवान् में पूर्ण रूप से समर्पित रहती है, अत: वह भगवान् से कुछ भी नहीं माँगता। जब ध्रुव महाराज ने भगवान् को अपने समक्ष देखा तो वसुदेव पद को प्राप्त हो जाने से उन्हें इस स्थिति का बोध हो सका। वसुदेव पद वह अवस्था है जहाँ भौतिक कल्मष अनुपस्थित रहता है, अर्थात् जहाँ प्रकृति के तीनों गुणों—सतो, रजो तथा तमो गुणों—का प्रश्न नहीं उठता, अत: मनुष्य को भगवान् के दर्शन हो सकते हैं। चूँकि वसुदेव पद पर ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है, अत: भगवान् को वासुदेव भी कहा जाता है।

ध्रुव महाराज तो ऐसा प्रतिष्ठित पद चाहते थे, जो उनके परदादा ब्रह्माजी भी न प्राप्त कर पाये थे। भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्त के प्रति, विशेष रूप से ध्रुव महाराज जैसे भक्त के प्रति, जो पाँच वर्ष की अवस्था में तपस्या हेतु जंगल चले गये थे, इतने वत्सल एवं कृपालु हैं कि भले ही उसका मन्तव्य अशुद्ध रहे, वे उस पर विचार नहीं करते। उन्हें तो सेवा से प्रयोजन रहता है। किन्तु यदि भक्त के मन में कोई विशेष मन्तव्य रहता है, तो भगवान् उसे किसी न किसी प्रकार जान लेते हैं और भक्त की भौतिक इच्छाओं को अपूर्ण नहीं रखते। भगवान् की भक्त के प्रति ऐसी कुछ विशेष अनुकम्पाएँ होती हैं।

ध्रुव महाराज को ध्रुवलोक प्रदान किया गया, जहाँ कभी कोई बद्धजीव नहीं रहा था। यहाँ तक कि इस ब्रह्माण्ड के सर्वश्रेष्ठ प्राणी ब्रह्मा को भी ध्रुवलोक में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई। जब भी इस ब्रह्माण्ड में कोई संकट आ पड़ता है, तो देवतागण मिलकर क्षीरोदकशायी विष्णु भगवान् के पास जाते हैं और क्षीरसागर के तट पर खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार ध्रुव ने जो माँग की थी—अपने परदादा ब्रह्मा से भी उच्च स्थान—वह पूरी हो गई।

इस श्लोक में भगवान् को मुक्तिपति कहा गया है, जिसका अर्थ है, “जिनके चरणकमलों के नीचे समस्त प्रकार की मुक्तियाँ हैं।” मुक्ति के पाँच प्रकार हैं—सायुज्य, सारूप्य, सालोक्य, सामीप्य तथा सार्ष्टि। ये पाँचों मुक्तियाँ भगवान् की भक्ति में लगे हुए किसी भी व्यक्ति द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं, किन्तु इनमें से सायुज्य मुक्ति की कामना सामान्यत: मायावादी चिन्तकों द्वारा की जाती है। वे भगवान् के निर्विशेष ब्रह्मतेज से तदाकार हो जाना चाहते हैं। कई विद्वानों की राय है कि यद्यपि सायुज्य मुक्ति की गणना, पाँच प्रकार की मुक्तियों में की जाती है, वास्तव में यह मुक्ति है नहीं, क्योंकि सायुज्य मुक्ति प्राप्त करके भी मनुष्य पुन: भौतिक जगत में आ गिरता है। इसकी जानकारी हमें श्रीमद्भागवत से (१०.२.३२) प्राप्त होती है, जिसमें कहा गया है पतन्त्यध: अर्थात् वे पुन: नीचे गिर जाते हैं। कठिन तपस्या के बाद अद्वैतवादी चिन्तक भगवान् के निर्गुण तेज में मिल जाता है, किन्तु जीवात्मा प्रेम व्यापार में सदैव पारस्परिक आदान-प्रदान चाहता है। अत: यद्यपि अद्वैतवादी चिन्तक भगवान् के तेज से मिलकर तदाकार पद को प्राप्त होता है, किन्तु भगवान् से संगति करने एवं उनकी सेवा करने की कोई सुविधा न होने से वह पुन: भौतिक जगत में आ गिरता है और उसके सेवा-भाव की तुष्टि भौतिक कल्याणकारी क्रियाकलापों द्वारा, यथा मानवतावाद, परोपकार तथा परमार्थवाद द्वारा होती है। मायावादी विचारधारा के बड़े-बड़े संन्यासियों तक के पतन के कितने ही उदाहरण हैं।

अत: वैष्णव चिन्तक सायुज्य मुक्ति को मुक्ति की कोटि में नहीं मानते। उनके अनुसार मुक्ति का अर्थ है माया के सेवा पद से भगवान् की प्रेमा-भक्ति में स्थानान्तरण। इस सम्बन्ध में भगवान् चैतन्य भी कहते हैं कि जीवात्मा की स्वाभाविक स्थिति भगवान् की सेवा करने की है। यही वास्तविक मुक्ति है। जब कृत्रिम पद त्याग कर कोई अपने मूल पद पर स्थित होता है, तो वह मुक्त कहलाता है। भगवद्गीता में इसकी पुष्टि हुई है—जो भी भगवान् की दिव्य प्रेमा-भक्ति करता है, वह मुक्त या ब्रह्मभूत माना जाता है। गीता में यह भी कहा गया है कि जब भक्त में कोई भौतिक कल्मष नहीं रहता तो वह ब्रह्मभूत पद पर स्थित माना जाता है। पद्म-पुराण में भी इस की पुष्टि हुई है कि मुक्ति का अर्थ है भगवान् की सेवा में अनुरक्त रहना।

मैत्रेय मुनि ने बताया कि ध्रुव महाराज प्रारम्भ में भगवान् की सेवा में अनुरक्त नहीं होना चाहते थे, वरन् वे अपने परदादा से भी उच्चतर स्थान चाह रहे थे। यह भगवान् की सेवा न होकर एक प्रकार से इन्द्रियों की सेवा है। यदि किसी को इस ब्रह्माण्ड का सर्वोच्च पद अर्थात् ब्रह्मा का पद मिल भी जाये तो भी वह बद्धजीव ही है। श्रील प्रबोधानन्द सरस्वती का कहना है कि यदि कोई वास्तविक, शुद्ध भक्ति को प्राप्त कर लेता है, तो वह ब्रह्मा तथा इन्द्र जैसे बड़े-बड़े देवों को भी तुच्छ कीट जैसा मानता है। इसका कारण यह है कि तुच्छ से तुच्छ कीड़े में भी इन्द्रिय-तृप्ति की आकांक्षा रहती है और ब्रह्मा जैसा महापुरुष भी तो इस भौतिक प्रकृति को अपने वश में रखना चाहता है।

इन्द्रियतृप्ति का अर्थ है भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व। बद्धजीवों की सारी स्पर्धा इसी भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त करने पर आधारित है। आधुनिक वैज्ञानिकों को अपने ज्ञान का गुमान है कि वे नई विधियों की खोज करके भौतिक प्रकृति के नियमों पर प्रभुत्व प्राप्त कर रहे हैं। वे इसे मानवीय सभ्यता की प्रगति समझते हैं। वे जितना ही अधिक प्रकृति के नियमों पर प्रभुत्व स्थापित करते जाते हैं, वे अपने को उतना ही उन्नत मानते हैं। प्रारम्भ में ध्रुव महाराज की मनोवृत्ति ऐसी ही थी। वे इस भौतिक जगत में ब्रह्मा से भी बड़ा पद प्राप्त करके प्रभुत्व जताना चाहते थे। अत:, जैसाकि अन्यत्र वर्णन हुआ है, भगवान् के प्रकट होने पर जब ध्रुव महाराज अपने संकल्प तथा अन्तिम रूप से प्राप्त पुरस्कार की तुलना करने बैठे तो उन्हें अनुभव हुआ कि उन्होंने तो टूटे काँच के कुछ टुकड़ों की माँग की थी, किन्तु बदले में उनको अनेक हीरे प्राप्त हुए हैं। जैसे ही उन्होंने भगवान् को अपने समक्ष देखा, उन्हें तुरन्त बोध हो आया कि उन्होंने भगवान् से ब्रह्माजी से भी बढक़र उच्चतर पद को प्राप्त करने की कितनी ओछी माँग की है।

जब ध्रुव महाराज भगवान् को साक्षात् देखकर वसुदेव पद पर स्थित हो गये तो उनका सारा भौतिक कल्मष जाता रहा। इस प्रकार वे लज्जाग्रस्त हुए कि उनकी माँग क्या थी और उन्हें मिला क्या। उन्हें लज्जा इस बात से हुई कि यद्यपि वे अपने पिता का राज्य छोडक़र मधुवन गये थे और उन्हें नारद मुनि जैसा गुरु प्राप्त हो चुका था, तो भी वे अपनी विमाता से बदला लेने की सोच रहे थे और इसी लोक में सम्मानित पद ग्रहण करना चाह रहे थे। यही कारण था कि भगवान् से समस्त मनवांछित वरदान प्राप्त करके भी वे खिन्न थे।

जब ध्रुव महाराज ने वास्तव में भगवान् को अपने समक्ष देखा तो उनके मन में न तो अपनी विमाता से प्रतिशोध लेने की भावना थी, न ही इस भौतिक संसार पर राज्य करने की इच्छा थी, किन्तु भगवान् इतने दयालु हैं कि वे समझ गये कि ध्रुव महाराज को इनकी इच्छा है। ध्रुव महाराज के समक्ष बोलते हुए भगवान् ने वेदाहम् शब्द का प्रयोग किया, क्योंकि जब धुव्र महाराज ने भौतिक लाभों की मांग की तो वे उनके हृदय में विराजमान होने के कारण सब कुछ जान चुके थे। मनुष्य जो भी सोचता है उसे भगवान् सदैव जान लेते हैं। भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है—वेदाहं समतीतानि।

भगवान् ने ध्रुव महाराज की समस्त इच्छाएँ पूरी कीं। अपनी विमाता तथा सौतले भाई के प्रति उनकी प्रतिशोधपरक मनोवृत्ति पूर्ण हुई; अपने परदादा से भी श्रेष्ठ पद प्राप्त करने की इच्छा भी पूरी हुई और उसी के साथ ही ध्रुवलोक में उनका शाश्वत पद निश्चित हो गया। यद्यपि ध्रुव महाराज ने शाश्वत लोक की कल्पना भी नहीं की थी, किन्तु श्रीकृष्ण ने सोचा कि बेचारा ध्रुव इस संसार का उच्च पद प्राप्त करके क्या करेगा? अत: उन्होंने ध्रुव को छत्तीस हजार वर्षों तक वृद्ध हुए बिना और अनेक यज्ञों को सम्पन्न करने का अवसर प्रदान करते हुए इस संसार का सर्वविख्यात राजा बन कर राज्य करने का सुअवसर प्रदान किया और इस प्रकार समस्त भौतिक भोग के पश्चात् ध्रुव को आध्यात्मिक जगत में, जिसमें ध्रुवलोक सम्मिलित है, भेज दिया।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥