ध्रुव: उवाच—ध्रुव महाराज ने कहा; समाधिना—समाधि में योग अभ्यास द्वारा; न—कभी नहीं; एक-भवेन—एक जन्म से; यत्—जो; पदम्—पद, स्थिति; विदु:—समझ गया; सनन्द-आदय:—सनन्दन इत्यादि चारों ब्रह्मचारी; ऊर्ध्व-रेतस:—अच्युत ब्रह्मचारी; मासै:—महीनों में; अहम्—मैं; षड्भि:—छह; अमुष्य—उनके; पादयो:—चरणकमलों का; छायाम्—आश्रय, शरण; उपेत्य—प्राप्त करके; अपगत:—गिर पड़ा; पृथक्-मति:—भगवान् के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं पर स्थित मेरा मन ।.
अनुवाद
ध्रुव महाराज ने मन ही मन सोचा—भगवान् के चरणकमलों की छाया में स्थित रहने का प्रयत्न करना कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि सनन्दन इत्यादि जैसे महान् ब्रह्मचारियों ने भी, जिन्होंने समाधि में अष्टांग योग की साधना की, अनेक जन्मों के बाद ही भगवान् के चरणारविन्द की शरण प्राप्त की है। मैंने तो छह महीनों में ही वही फल प्राप्त कर लिया है, तो भी मैं भगवान् से भिन्न प्रकार से सोचने के कारण मैं अपने पद से नीचे गिर गया हूँ।
तात्पर्य
इस श्लोक में ध्रुव महाराज स्वयं अपनी खिन्नता का कारण बताते हैं। सर्वप्रथम वे पश्चात्ताप करते हैं कि भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन करना आसान नहीं है। यहाँ तक कि बड़े-बड़े साधु पुरुष, यथा सनन्दन इत्यादि चारों ब्रह्मचारी—सनन्दन, सनक, सनातन तथा सनत्कुमार—अनेकानेक जन्मों तक योगाभ्यास करके समाधि में रहकर भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन कर पाने में समर्थ हुए। किन्तु जहाँ तक ध्रुव महाराज का प्रश्र है, उन्होंने तो छह मास की भक्ति से ही भगवान् का साक्षात्कार कर लिया। अत: उन्हें आशा थी कि भगवान् से भेंट होते ही वे उन्हें तुरन्त अपने धाम को लेते जाएँगे। वे यह भी स्पष्ट रूप से समझ गये कि भगवान् ने उन्हें छत्तीस हजार वर्षों तक संसार का शासन करने का वर इसलिए दिया है, क्योंकि वे प्रारम्भ में भौतिक शक्ति के वश में थे और अपनी विमाता से बदला लेने और पिता के राज्य पर शासन करना चाह रहे थे। ध्रुव महाराज को इन दोनों विचारों के लिए घोर पश्चात्ताप हुआ।
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