श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  4.9.31 
अहो बत ममानात्म्यं मन्दभाग्यस्य पश्यत ।
भवच्छिद: पादमूलं गत्वायाचे यदन्तवत् ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
अहो—अहो; बत—हाय; मम—मेरा; अनात्म्यम्—देहात्म बोध; मन्द-भाग्यस्य—अभागे का; पश्यत—जरा देखो तो; भव— भौतिक अस्तित्व; छिद:—छिन्न कर सकने वाले भगवान् के; पाद-मूलम्—चरणकमल के; गत्वा—पास जाकर; याचे—मैंने याचना की; यत्—वह जो; अन्त-वत्—नाशवान ।.
 
अनुवाद
 
 ओह! जरा देखो तो; मैं कितना अभागा हूँ! मैं उन भगवान् के चरणकमलों से पास पहुँच गया जो जन्म-मरण के चक्र की शृंखला को तुरन्त काट सकते हैं, किन्तु फिर भी अपनी मूर्खता के कारण, मैने ऐसी वस्तुओं की याचना की, जो नाशवान् हैं।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में अनात्म्यम् शब्द अत्यन्त सार्थक है। ‘आत्मा’ का अर्थ आत्मा है और अनात्म्य का अर्थ है, “आत्मा के विषय में किसी प्रकार की धारणा के बिना।” श्रील ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को शिक्षा दी थी कि जब तक मनुष्य आत्मा को समझ नहीं लेता, तब तक वह जो भी करता है, वह अविद्या है और इससे जीवन में उसे हार ही मिलती है। ध्रुव महाराज को अपनी अभागी स्थिति पर खेद है, क्योंकि वे भगवान् के पास तो पहुँचे, किन्तु अज्ञानवश उन्होंने नाशवान् वस्तु की इच्छा व्यक्त की जबकि भगवान् अपने भक्तों को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिलाने का परम वर देनेवाले हैं, जो किसी भी देवता के लिए दे पाना असम्भव है। जब हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा से अमरत्व का वर माँगा तो ब्रह्मा ने ऐसा वर देने में असमर्थता व्यक्त की क्योंकि वे स्वयं अमर नहीं हैं, अत: अमरत्व अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से परम मुक्ति प्रदान करनेवाले तो एकमात्र भगवान् हैं। अन्य कोई भी नहीं है। हरिं विना न सृतिं तरन्ति। कहा गया है कि भगवान् हरि के आशीर्वाद के बिना इस संसार में जन्म तथा मृत्यु की अविरल शृंखला को कोई रोक नहीं सकता। इसलिए परमेश्वर को भव-च्छित् भी कहा गया है। कृष्णचेतना की प्रविधि में वैष्णव दर्शन भक्त को समस्त प्रकार की भौतिक आकांक्षाओं से वर्जित करता है। वैष्णव भक्त को सदा अन्याभिलाषिता शून्य अर्थात् सकाम कर्म के फलों की भौतिक कामनाओं से या दार्शनिक चिन्तन से मुक्त होना चाहिए। वास्तव में ध्रुव महाराज को परम वैष्णव नारद मुनि ने दीक्षा दी थी कि वे ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जप करें। यह मंत्र विष्णु मन्त्र है, क्योंकि इस मंत्र के जप का अभ्यास करनेवाले को विष्णुलोक प्राप्त होता है। ध्रुव महाराज को इसका खेद है कि एक वैष्णव द्वारा विष्णु मंत्र में दीक्षित होकर भी वे भौतिक लाभ की इच्छा कर रहे थे। उनके पश्चात्ताप का यह दूसरा कारण था। यद्यपि उन्हें भगवान् की अहैतुकी कृपा से विष्णु मंत्र का फल प्राप्त हुआ, किन्तु उन्हें पछतावा बना रहा कि भक्तियोग का अभ्यास करते हुए उन्होंने मूर्खतावश भौतिक लाभ के लिए क्यों प्रयास किया। दूसरे शब्दों में, हममें से प्रत्येक व्यक्ति को जो कृष्ण-भक्ति में लगा है, भौतिक आकांक्षाओं से पूर्णत: मुक्त होना चाहिए, अन्यथा हमें भी ध्रुव महाराज की ही तरह पछताना पड़ेगा।
 
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