चूँकि सभी देवताओं को, जो उच्च लोकों में स्थित हैं, फिर से नीचे आना होगा, अत: वे सभी भक्ति द्वारा मेरे विष्णुलोक को प्राप्त करने के प्रति ईर्ष्यालु हैं। इन असहिष्णु देवताओं ने मेरी बुद्धि नष्ट कर दी है और यही एकमात्र कारण है, जिससे मैं नारदमुनि के उपदेशों के आशीर्वाद को स्वीकार नहीं कर सका!
तात्पर्य
वैदिक साहित्य में ऐसे अनेक अवसरों का उल्लेख है कि जब कोई पुरुष कठिन तपस्या करता है, तो देवतागण विचलित हो उठते हैं कि कहीं स्वर्ग के उनके प्रमुख स्थान को कोई दूसरा ग्रहण न कर ले। उन्हें पता है कि स्वर्ग में उनका स्थान अस्थायी है, जैसाकि भगवद्गीता के नवें अध्याय में कहा गया है (क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति), स्वर्ग निवासी सभी देवता अपने पुण्यकर्मों के क्षीण होने पर पुन: इसी पृथ्वी पर आ जाते हैं।
यह तथ्य है कि देवता ही हमारे शरीर के विभिन्न अंगों के कार्यों का संचालन करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम अपनी पलकें भी चलाने के लिए स्वतंत्र नहीं। हर कार्य उन्हीं के द्वारा नियंत्रित होता है। ध्रुव महाराज इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन देवताओं ने उनकी भक्ति से ईर्ष्यालु होकर उनके विरुद्ध, और उनकी बुद्धि को दूषित कर दिया जिससे परम वैष्णव नारद मुनि के शिष्य होते हुए भी वे नारद के सही उपदेशों को ग्रहण न कर सके। अब ध्रुव महाराज को घोर पश्चात्ताप हो रहा था कि उन्होंने उन उपदेशों की क्यों उपेक्षा की। नारद मुनि ने उनसे कहा था, “तुम अपनी विमाता द्वारा किये गये अपमान या प्रशंसा की क्यों परवाह करते हो?” उन्होंने ध्रुव महाराज से कहा था कि, “तुम तो केवल बालक हो, अत: ऐसे अपमान या प्रशंसा से तुम्हें क्या लेना देना?”—किन्तु ध्रुव महाराज तो भगवान् द्वारा प्रदत्त आशीर्वाद प्राप्त करने पर तुले थे, अत: नारद ने सलाह दी थी कि वे फिलहाल अपने घर चले जाँय और बड़े होने पर भक्ति करने का प्रयास करें। ध्रुव महाराज को खेद हो रहा था कि उन्होंने नारद मुनि के उपदेश को क्यों अस्वीकार किया और क्यों भगवान् से किसी नाशवान वस्तु अर्थात् विमाता से प्रतिशोध तथा अपने पिता के राज्य पर अधिकार करने का वर पाने पर तुले रहे।
ध्रुव महाराज को पछतावा था कि उन्होंने अपने गुरु के उपदेश पर गभ्भीरता से विचार नहीं किया; इसीलिए उनकी चेतना दूषित हो गई थी। तो भी भगवान् इतने दयालु हैं कि भक्ति के कारण उन्होंने धुव्र को चरम वैष्णव-लक्ष्य प्रदान किया।
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