श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  4.9.33 
दैवीं मायामुपाश्रित्य प्रसुप्त इव भिन्नद‍ृक् ।
तप्ये द्वितीयेऽप्यसति भ्रातृभ्रातृव्यहृद्रुजा ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
दैवीम्—भगवान् की; मायाम्—माया; उपाश्रित्य—शरण ग्रहण करके; प्रसुप्त:—निद्रा में स्वप्न देखता; इव—सदृश्य; भिन्न- दृक्—विलग दृष्टि वाला; तप्ये—मैंने पश्चात्ताप किया; द्वितीये—माया में; अपि—यद्यपि; असति—क्षणिक; भ्रातृ—भाई; भ्रातृव्य—शत्रु; हृत्—हृदय के भीतर; रुजा—पश्चात्ताप से ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज पश्चात्ताप करने लगे कि मैं माया के वश में था; वास्तविकता से अपरिचित होने के कारण मैं उसकी गोद में सोया था। द्वैत दृष्टि के कारण मैं अपने भाई को शत्रु समझता रहा और झूठे ही यह सोचकर मन ही मन पश्चात्ताप करता रहा कि वे मेरे शत्रु हैं।
 
तात्पर्य
 भक्त को वास्तविक ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब भगवत्कृपा से उसे जीवन के विषय में सही निष्कर्ष ज्ञात होता है। इस भौतिक जगत में मित्रों तथा शत्रुओं का बनाना रात्रि में स्वप्न देखने जैसा है। स्वप्न में हम अवचेतन मन पर स्थित विभिन्न प्रभावों के कारण अनेकानेक बातों की सृष्टि करते रहते हैं, किन्तु वे सभी क्षणिक तथा असत्य होती हैं। इसी प्रकार, यद्यपि हम भौतिक जीवन में जाग्रत (चैतन्य) दिखते हैं, किन्तु आत्मा तथा परमात्मा के विषय में कोई जानकारी न होने के कारण हम कल्पना से अनेक मित्र तथा शत्रु बना लेते हैं। श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी कहते हैं कि इस भौतिक जगत या भौतिक चेतना में अच्छा तथा बुरा दोनों एक से हैं। अच्छे तथा बुरे का अन्तर केवल हमारी मानसिक ऊहापोह है। वास्तविकता तो यह है कि सभी जीवात्माएँ भगवान् की सन्तानें अथवा उनकी तटस्था शक्ति के आनुषंगिक फल (उपोत्पाद) हैं। प्रकृति के गुणों से दूषित होने के कारण हम एक आध्यात्मिक स्फुलिंग को दूसरे से भिन्न मानते हैं। यह भी एक अन्य प्रकार का स्वप्न-दर्शन है। भगवद्गीता में कहा गया है कि जो सचमुच विद्वान् हैं, वे किसी विद्वान, ब्राह्मण, हाथी, कुत्ते तथा चांडाल में भेद नहीं बरतते। वे बाह्य शरीर के रूप में न देखकर व्यक्ति को आत्मा के रूप में देखते हैं। उच्च ज्ञान के द्वारा मनुष्य जान पाता है कि यह देह पाँच तत्त्वों के संयोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस दृष्टि से भी मनुष्य और देवता के शरीर की बनावट एक-जैसी है। आध्यात्मिक दृष्टि से हम सभी आध्यात्मिक स्फुलिंग हैं, ईश्वर के भिन्नांश हैं। चाहे भौतिक दृष्टि से हो अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से, हम सभी एक हैं, किन्तु माया से प्रेरित होकर हम मित्र तथा शत्रु बनाते हैं, अत: ध्रुव महाराज ने कहा—दैवीं मायामुपाश्रित्य—उनके मोह का कारण माया की संगति थी।
 
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