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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  4.9.34 
मयैतत्प्रार्थितं व्यर्थं चिकित्सेव गतायुषि ।
प्रसाद्य जगदात्मानं तपसा दुष्प्रसादनम् ।
भवच्छिदमयाचेऽहं भवं भाग्यविवर्जित: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
मया—मेरे द्वारा; एतत्—यह; प्रार्थितम्—के लिए प्रार्थना किया गया; व्यर्थम्—वृथा ही; चिकित्सा—उपचार; इव—सदृश; गत—समाप्त; आयुषि—उसके लिए जिसकी आयु; प्रसाद्य—तुष्ट करके; जगत्-आत्मानम्—ब्रह्माण्ड की आत्मा; तपसा— तपस्या से; दुष्प्रसादनम्—जिसे प्रसन्न कर पाना कठिन है; भव-छिदम्—भगवान् जो जन्म तथा मृत्यु की शृंखला को काटने में समर्थ हैं; अयाचे—याचना की; अहम्—मैंने; भवम्—जन्म तथा मृत्यु की आवृत्ति; भाग्य—भाग्य; विवर्जित:—रहित, हीन ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् को प्रसन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु मैंने तो समस्त ब्रह्माण्ड के परमात्मा को प्रसन्न करके भी अपने लिए व्यर्थ की वस्तुएँ माँगी हैं। मेरे कार्य ठीक वैसे ही हैं जैसे पहले से किसी मृत व्यक्ति का उपचार करना। जरा देखो तो मैं कितना अभागा हूँ कि जन्म तथा मृत्यु की शृंखला को काटने में समर्थ परमेश्वर से साक्षात्कार कर लेने पर भी मैंने फिर उन्हीं दशाओं के लिए पुन: प्रार्थना की है!
 
तात्पर्य
 कभी-कभी ऐसा होता है कि भगवान् की प्रेमा-भक्ति में अनुरक्त रहनेवाला भक्त अपनी सेवा के बदले में कुछ भौतिक लाभ की कामना करता है। यह भक्ति करने की सही विधि नहीं है। निस्सन्देह, अविद्या के कारण भक्त कभी-कभी ऐसा कर बैठता है, किन्तु ध्रुव महाराज को अपने ऐसे आचरण पर पछतावा हो रहा है। स्
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥