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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  4.9.35 
वाराज्यं यच्छतो मौढ्यान्मानो मे भिक्षितो बत ।
ईश्वरात्क्षीणपुण्येन फलीकारानिवाधन: ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
स्वाराज्यम्—उनकी भक्ति; यच्छत:—भगवान् से, जो देने के लिए इच्छुक थे; मौढ्यात्—मूर्खता से; मान:—सम्पन्नता; मे—मेरे द्वारा; भिक्षित:—याचित; बत—ओह; ईश्वरात्—महान् सम्राट से; क्षीण—घटा हुआ; पुण्येन—जिसके पवित्र कर्म; फली- कारान्—चावल के टूटन, कना; इव—सदृश; अधन:—निर्धन मनुष्य ।.
 
अनुवाद
 
 पूरी तरह अपनी मूर्खता और पुण्यकर्मों की न्यूनता के कारण ही मैंने भौतिक नाम, यश तथा सम्पन्नता चाही यद्यपि भगवान् ने मुझे अपनी निजी सेवा प्रदान की थी। मेरी स्थिति तो उस निर्धन व्यक्ति की-सी है, जिस बेचारे ने महान् सम्राट के प्रसन्न होने पर मुँहमाँगी वस्तु माँगने के लिए कहे जाने पर अज्ञानवश चावल के कुछ कने ही माँगे।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में स्वाराज्यम् शब्द, जिसका अर्थ “पूर्ण स्वतंत्रता” होता है, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। बद्धजीव जान ही नहीं पाता कि पूर्ण स्वतंत्रता क्या है। पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है अपनी ही स्वाभाविक स्थिति। परमेश्वर के अंश जीवात्मा की वास्तविक स्वाधीनता यही है कि वह सदैव परमेश्वर पर आश्रित रहे, जिस प्रकार कि एक बच्चा माता-पिता की देखरेख में स्वाधीन होकर खेलता है। बद्धजीव की स्वाधीनता का अर्थ यह नहीं है कि वह माया द्वारा उत्पन्न अवरोधों से भिड़ता रहे, अपितु वह श्रीकृष्ण की शरण में जाए। भौतिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति माया द्वारा उत्पन्न अवरोधों से जूझ करके पूर्णत: स्वतंत्र होना चाहता है। इसे अस्तित्व के लिए संघर्ष कहा जाता है। वास्तविक स्वाधीनता तो भगवान् की सेवा में फिर से जुड़ जाना है। जो कोई वैकुण्ठलोक गोलोक वृन्दावन जाता है, वह मुक्त भाव से भगवान् की सेवा करता है। यही पूर्ण स्वतंत्रता है। इसके सर्वथा विपरीत भौतिक स्वामित्व है, जिसे हम भ्रमवश स्वतंत्रता मान लेते हैं। अनेक राजनीतिक नेताओं ने स्वतंत्रता स्थापित करने के प्रयास किये हैं, किन्तु तथाकथित स्वतंत्रता से मनुष्यों की परतंत्रता ही बढ़ी है। जीवात्मा कभी-भी भौतिक जगत में स्वतंत्र रहने का प्रयास करके प्रसन्नता का अनुभव नहीं कर सकता। अत: मनुष्य को भगवान् के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करके चिरन्तन सेवा करनी होती है।

ध्रुव महाराज को पछतावा है कि उन्होंने भौतिक ऐश्वर्य तथा अपने परदादा ब्रह्मा से भी अधिक सम्पन्नता की इच्छा व्यक्त की। भगवान् से उनकी यह याचना वैसी ही थी जैसी कि किसी महान सम्राट से किसी निर्धन व्यक्ति द्वारा चावल के टूटे कनों की माँग। निष्कर्ष यह निकला कि जो कोई भी भगवान् की प्रेमा-भक्ति में संलग्न है उसे भगवान् से भौतिक सम्पन्नता की याचना नहीं करनी चाहिए। भौतिक सम्पन्नता प्रदान करना बहिरंगा शक्ति के कड़े विधि-विधानों पर निर्भर करता है। शुद्ध भक्त तो भगवान् की सेवा करने का अवसर प्रदान करने की याचना करते हैं। यही हमारी असली स्वतंत्रता है। यदि हम कुछ और चाहते हैं, तो यह हमारे दुर्भाग्य का सूचक है।

 
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