महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, आप जैसे व्यक्ति, जो मुकुन्द (मुक्तिप्रदाता भगवान्) के चरणकमलों के विशुद्ध भक्त हैं और उनके चरणकमलों में भौंरों के सदृश्य आसक्त रहते हैं, सदैव भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने में ही प्रसन्न रहते हैं। ऐसे पुरुष, जीवन की किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट रहते हैं और भगवान् से कभी भी किसी भौतिक सम्पन्नता की याचना नहीं करते।
तात्पर्य
भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि वे परम भोक्ता हैं, वे ही इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के परम स्वामी और सबों के परम मित्र हैं। जब मनुष्य इन बातों को भलीभाँति जान लेता है, तो वह सदैव सन्तुष्ट रहता है। शुद्ध भक्त कभी-भी किसी प्रकार की भौतिक सम्पन्नता के पीछे नहीं पड़ता। किन्तु कर्मी अथवा ज्ञानी या योगी अपने-अपने सुख के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। कर्मी अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए दिन-रात श्रम करते हैं; ज्ञानी मुक्ति पाने के उद्देश्य से कठिन तपस्या करते हैं और योगी भी चमत्कारी शक्ति प्राप्त करने के लिए कठिन योगाभ्यास करते हैं। किन्तु भक्त की रुचि ऐसे कार्यों में कदापि नहीं रहती; उसे न तो योगशक्ति चाहिए, न मुक्ति अथवा भौतिक सम्पन्नता। वह तो, जब तक भगवान् की सेवा में निरन्तर लगा रहता है, जीवन की किसी भी दशा में सन्तुष्ट रहता है। भगवान् के चरणों की तुलना कमल से की जाती है, जिसमें केशर की धूलि रहती है। भक्त सदैव भगवान् के चरणकमलों मधुपान में व्यस्त रहता है। जब तक कोई सभी भौतिक इच्छाओंसे मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वह भगवान् के चरणकमलों से मधु को वास्तव में नहीं चख सकता। मनुष्य को किसी प्रकार से भौतिक परिस्थितियों के आने और जाने से विचलित हुए बिना भक्तिकार्य करते रहना होता है। भौतिक सम्पन्नता के लिए किसी प्रकार की कामना का न होना निष्काम कहलाता है। मनुष्य को भ्रमवश यह नहीं समझ बैठना चाहिए कि निष्काम का अर्थ समस्त कामनाओं का परित्याग है। यह असम्भव है। जीवात्मा शाश्वतरूप से विद्यमान है, अत: वह कामनाओं को नहीं त्याग सकता। जीवात्मा में कामनाएँ होनी ही चाहिए, यह तो जीवन का लक्षण है। जब निष्काम बनने की संस्तुति प्राप्त हो तो उसका यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए कि हमें अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए किसी भी वस्तु की कामना नहीं करनी चाहिए। भक्त के लिए यह मन:स्थिति, अर्थात् नि:स्पृह होना, उचित स्थिति है। वस्तुत: हममें से प्रत्येक के पास भौतिक सुख-सुविधा के लिए अपनी-अपनी व्यवस्था रहती है। भक्त को भगवान् द्वारा प्रदत्त सुविधाओं के मानदण्ड से सदैव संतुष्ट रहना चाहिए, जैसाकि ईशोपनिषद् में कहा गया है (तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: )। इससे कृष्णभक्ति करने के लिए समय मिल जाता है।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.