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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  4.9.38 
श्रद्धाय वाक्यं देवर्षेर्हर्षवेगेन धर्षित: ।
वार्ताहर्तुरतिप्रीतो हारं प्रादान्महाधनम् ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
श्रद्धाय—श्रद्धा रखकर; वाक्यम्—वचनों में; देवर्षे:—नारद मुनि के; हर्ष-वेगेन—परम संतोष से; धर्षित:—भावविभोर होकर; वार्ता-हर्तु:—समाचार लानेवाले से; अतिप्रीत:—अत्यन्त प्रसन्न होकर; हारम्—मोती की माला; प्रादात्—प्रदान किया; महा-धनम्—अत्यन्त मूल्यवान ।.
 
अनुवाद
 
 यद्यपि उसे सन्देशवाहक की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, किन्तु महर्षि नारद के वचन पर उसकी सम्पूर्ण श्रद्धा थी। अत: वह इस समाचार से अत्यन्त भावविह्वल हो उठा और हर्षातिरेक में झट उसने संदेशवाहक को एक बहुमूल्य हार भेंट कर दिया।
 
 
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