श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 39-40
 
 
श्लोक  4.9.39-40 
सदश्वं रथमारुह्य कार्तस्वरपरिष्कृतम् ।
ब्राह्मणै: कुलवृद्धैश्च पर्यस्तोऽमात्यबन्धुभि: ॥ ३९ ॥
शङ्खदुन्दुभिनादेन ब्रह्मघोषेण वेणुभि: ।
निश्चक्राम पुरात्तूर्णमात्मजाभीक्षणोत्सुक: ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
सत्-अश्वम्—सुन्दर घोड़ों द्वारा खींचा जानेवाला; रथम्—रथ पर; आरुह्य—चढ़ कर; कार्तस्वर-परिष्कृतम्—सुवर्णजटित; ब्राह्मणै:—ब्राह्मणों के साथ; कुल-वृद्धै:—परिवार के बूढ़े लोगों के साथ; च—भी; पर्यस्त:—घिरकर; अमात्य—अधिकारियों तथा मंत्रियों द्वारा; बन्धुभि:—तथा मित्रों से; शङ्ख—शंख; दुन्दुभि—तथा दुन्दुभी की; नादेन—ध्वनि से; ब्रह्म-घोषेण—वैदिक मंत्रों के उच्चारण से; वेणुभि:—वंशी से; निश्चक्राम—बाहर आया; पुरात्—नगर से; तूर्णम्—शीघ्रता से; आत्म-ज—पुत्र को; अभीक्षण—देखने के लिए; उत्सुक:—अत्यन्त इच्छुक ।.
 
अनुवाद
 
 अपने खोये हुए पुत्र के मुख को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक राजा उत्तानपाद उत्तम घोड़ों से खींचे जानेवाले तथा स्वर्णजटित रथ पर आरूढ़ हुआ। वह अपने साथ अनेक विद्वान् ब्राह्मण, परिवार के गुरुजन, अपने अधिकारी तथा मंत्री और अपने सगे मित्रों को लेकर तुरन्त नगर से बाहर चला गया। जब वह इस दल के साथ आगे बढ़ रहा था, तो शंख, दुन्दुभी, वंशी तथा वेद- मंत्रों के उच्चारण की मंगलसूचक ध्वनि हो रही थी।
 
 
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