श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  4.9.41 
सुनीति: सुरुचिश्चास्य महिष्यौ रुक्‍मभूषिते ।
आरुह्य शिबिकां सार्धमुत्तमेनाभिजग्मतु: ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
सुनीति:—सुनीति; सुरुचि:—सुरुचि; च—भी; अस्य—राजा की; महिष्यौ—रानियाँ; रुक्म-भूषिते—स्वर्ण आभूषणों से विभूषित; आरुह्य—चढक़र; शिबिकाम्—पालकी में; सार्धम्—के साथ साथ; उत्तमेन—राजा का अन्य पुत्र; अभिजग्मतु:— सभी साथ-साथ गये ।.
 
अनुवाद
 
 उस स्वागत-यत्रा में राजा उत्तानपाद की दोनों रानियाँ, सुनीति तथा सुरुचि और राजा का दूसरा पुत्र उत्तम दिख रहे थे। रानियाँ पालकी में बैठी थीं।
 
तात्पर्य
 राजमहल से ध्रुव महाराज के चले जाने पर राजा अत्यन्त दुखी था, किन्तु नारद मुनि के सदय वचनों से वह कुछ-कुछ प्रसन्न था। वह अपनी पत्नी सुनीति के सौभाग्य तथा सुरुचि के दुर्भाग्य को समझ रहा था क्योंकि महल में ये तथ्य खुले रूप में प्रकट थे। तो भी जब यह समाचार महल में पहुँचा कि ध्रुव महाराज वापस आ रहे हैं, तो उनकी माता सुनीति ने दयावश तथा परम वैष्णव की माता होने के कारण दूसरी रानी सुरुचि तथा उसके पुत्र उत्तम को उसी पालकी में चढ़ाने में तनिक भी संकोच नहीं किया। यह परम वैष्णव ध्रुव महाराज की माता सुनीति की महानता थी।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥