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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 42-43
 
 
श्लोक  4.9.42-43 
तं द‍ृष्ट्वोपवनाभ्याश आयान्तं तरसा रथात् ।
अवरुह्य नृपस्तूर्णमासाद्य प्रेमविह्वल: ॥ ४२ ॥
परिरेभेऽङ्गजं दोर्भ्यां दीर्घोत्कण्ठमना: श्वसन् ।
विष्वक्सेनाङ्‌घ्रिसंस्पर्शहताशेषाघबन्धनम् ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको (ध्रुव महाराज को); दृष्ट्वा—देखकर; उपवन—छोटा जंगल; अभ्याशे—निकट; आयान्तम्—लौटते हुए; तरसा— तेजी से; रथात्—रथ से; अवरुह्य—उतर कर; नृप:—राजा; तूर्णम्—तुरन्त; आसाद्य—निकट आकर; प्रेम—प्रेम से; विह्वल:— विभोर; परिरेभे—आलिंगन किया; अङ्ग-जम्—अपने पुत्र को; दोर्भ्याम्—अपनी बाँहों से; दीर्घ—दीर्घ समय तक; उत्कण्ठ— उत्सुक; मना:—जिसका मन, राजा; श्वसन्—तेजी से साँस लेता; विष्वक्सेन—भगवान् के; अङ्घ्रि—चरणकमल से; संस्पर्श— स्पर्श किया जाकर; हत—नष्ट; अशेष—अनन्त; अघ—भौतिक कल्मष; बन्धनम्—जिसका बन्धन ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज को एक उपवन के निकट पहुँचा देखकर राजा उत्तानपाद तुरन्त अपने रथ से नीचे उतर आये। वे अपने पुत्र ध्रुव को देखने के लिए दीर्घकाल से अत्यन्त उत्सुक थे, अत: वे अत्यन्त प्रेमवश दीर्घकाल से खोये अपने पुत्र का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़े। लम्बी लम्बी साँसें भरते हुए राजा ने उनको अपने दोनों बाहुओं में भर लिया। किन्तु ध्रुव महाराज पहले जैसे न थे; वे भगवान् के चरणकमलों के स्पर्श से आध्यात्मिक उन्नति मिलने से पूर्ण रूप से पवित्र हो चुके थे।
 
 
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