श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  4.9.44 
अथाजिघ्रन्मुहुर्मूर्ध्नि शीतैर्नयनवारिभि: ।
स्‍नापयामास तनयं जातोद्दाममनोरथ: ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—तत्पश्चात्; आजिघ्रन्—सूँघते हुए; मुहु:—बारम्बार; मूर्ध्नि—सिर पर; शीतै:—ठंडे; नयन—नेत्रों के; वारिभि:—जल से; स्नापयाम् आस—नहला दिया; तनयम्—पुत्र को; जात—पूर्ण; उद्दाम—बड़ी; मन:-रथ:—उसकी कामना ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज के मिलन से राजा उत्तानपाद की चिर-अभिलषित साध पूरी हुई, अत: उन्होंने बारम्बार ध्रुव का सिर सूँघा और अपने ठंडे अश्रुओं की धाराओं से उन्हें नहला दिया।
 
तात्पर्य
 स्वभावत: जब कोई व्यक्ति रोता है, तो दो कारण हो सकते हैं। जब किसी इच्छा के पूरे होने पर अत्यधिक प्रसन्नतावश कोई रोता है, तो आँखों से निकलनेवाले अश्रु अत्यन्त ठंडे एवं मनोहर लगते हैं जब कि दुख के आँसू अत्यन्त गर्म होते हैं।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥