तब समस्त सज्जनों में सर्वश्रेष्ठ ध्रुव महाराज ने सर्वप्रथम अपने पिता के चरणों में प्रणाम किया और उनके पिता ने अनेक प्रश्न पूछते हुए उनका सम्मान किया। तब उन्होंने अपनी दोनों माताओं के चरणों पर अपना सिर झुकाया।
तात्पर्य
यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि ध्रुव महाराज ने अपनी माता के साथ ही साथ अपनी विमाता को भी क्यों नमस्कार किया क्योंकि उसी के अपमान से उन्हें घर छोडऩा पड़ा था। इसका उत्तर यही है कि आत्म-साक्षात्कार द्वारा सिद्धि प्राप्त कर लेने तथा भगवान् का साक्षात् दर्शन कर लेने के कारण ध्रुव महाराज भौतिक कामना के समस्त कल्मष से पूर्ण रूप से मुक्त हो चुके थे। भक्त इस भौतिक संसार में कभी भी अपमान या सम्मान नहीं देखता। अत: भगवान् चैतन्य कहते हैं कि मनुष्य को दूब से भी अधिक विनीत होना चाहिए और सेवा करते समय उसे वृक्ष से भी अधिक सहनशील होना चाहिए। इसीलिए ध्रुव महाराज को इस श्लोक में सज्जनाग्रणी: कहा गया है, जिसका अर्थ है सज्जनों में सर्वश्रेष्ठ। शुद्ध भक्त सर्वश्रेष्ठ होता है, वह किसी के प्रति शत्रुभाव नहीं रखता। शत्रुता के कारण द्वैत भाव इस भौतिक जगत की सृष्टि है। आध्यात्मिक जगत में ऐसी कोई वस्तु नहीं है क्योंकि वह परम सत्य होता है।
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