श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 46
 
 
श्लोक  4.9.46 
सुरुचिस्तं समुत्थाप्य पादावनतमर्भकम् ।
परिष्वज्याह जीवेति बाष्पगद्गदया गिरा ॥ ४६ ॥
 
शब्दार्थ
सुरुचि:—सुरुचि; तम्—उस; समुत्थाप्य—उठाकर; पाद-अवनतम्—अपने चरणों पर नत; अर्भकम्—नादान बालक को; परिष्वज्य—आलिंगन करके; आह—कहा; जीव—दीर्घायु हो; इति—इस प्रकार; बाष्प—आँसुओं से; गद्गदया—रुद्ध; गिरा—वाणी से ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज की छोटी माता सुरुचि ने यह देखकर कि निर्दोष बालक उसके चरणों पर नत है, उसे तुरन्त उठा लिया, अपनी बाँहों में भर लिया और अश्रुपूर्ण गद्गद वाणी से आशीर्वाद दिया कि मेरे बालक, चिरञ्जीवी हो।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥