श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 47
 
 
श्लोक  4.9.47 
यस्य प्रसन्नो भगवान् गुणैर्मैत्र्यादिभिर्हरि: ।
तस्मै नमन्ति भूतानि निम्नमाप इव स्वयम् ॥ ४७ ॥
 
शब्दार्थ
यस्य—जिस किसी से; प्रसन्न:—प्रसन्न होता है; भगवान्—भगवान्; गुणै:—गुणों से; मैत्री-आदिभि:—मित्रता इत्यादि से.; हरि:—भगवान् हरि; तस्मै—उसको; नमन्ति—नमस्कार करते हैं; भूतानि—समस्त जीवात्माएँ; निम्नम्—नीचे की ओर; आप:—जल; इव—जिस प्रकार; स्वयम्—स्वत: ।.
 
अनुवाद
 
 जिस प्रकार स्वभावगत रूप से जल स्वत: नीचे की ओर बहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् के साथ मैत्रीपूर्ण आचरण के कारण दिव्य गुणों वाले व्यक्ति को सभी जीवात्माएँ मस्तक झुकाती हैं।
 
तात्पर्य
 यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि ध्रुव के प्रति सदय न होते हुए भी सुरुचि ने उन्हें “दीर्घजीवी हो” ऐसा आशीर्वाद क्यों दिया? इसका उत्तर इस श्लोक में दिया हुआ है। चूँकि अपने दिव्य गुणों के कारण भगवान् ने ध्रुव महाराज को आशीष दिया था, अत: सभी लोग उन्हें सम्मान देने के लिए बाध्य थे, जिस प्रकार कि जल प्राकृतिक रूप से सदैव नीचे की ओर बहता है। भगवद्-भक्त किसी से सम्मान नहीं चाहता, किन्तु संसार में वह जहाँ कहीं भी जाता है, सम्मानित होता रहता है। श्रीनिवास आचार्य ने कहा है कि वृन्दावन के छहों गोस्वामी सारे ब्रह्माण्ड में इसीलिए पूजित हैं, क्योंकि समस्त तेज के स्रोत भगवान् को प्रसन्न कर लेने पर भक्त स्वत: सबको प्रसन्न कर लेता है और इस तरह सभी उसका सम्मान करते हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥