उस समय ध्रुव महाराज को वैदिक निष्कर्ष का पूर्ण ज्ञान हो गया और वे परम सत्य तथा सभी जीवात्माओं से उनके सम्बन्ध को जान गये। भगवान् के सेवाभाव के अनुसार विश्वविख्यात ध्रुव ने, जिन्हें शीघ्र ही ऐसे लोक की प्राप्ति होनेवाली थी, जो कभी भी यहाँ तक कि प्रलय काल में विनष्ट न होने वाला है, सहज भाव से सोदेश्य व निर्णयात्मक स्तुति की।
तात्पर्य
इस श्लोक में कई विचारणीय बातें हैं। पहली तो यह कि परम सत्य तथा सापेक्षिक भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों के मध्य का सम्बन्ध वैदिक साहित्य से परिचित व्यक्ति ही समझ सकता है। ध्रुव महाराज कभी किसी स्कूल या अध्यापक के पास वैदिक ज्ञान सीखने नहीं गये, किन्तु अपनी भगवद्भक्ति के कारण, ज्योंही भगवान् प्रकट हुए और उन्होंने उनके मस्तक को शंख से छुआ, उन्हें सारा वैदिक ज्ञान स्वत: प्राप्त हो गया। वैदिक साहित्य को समझने की यही विधि है। मात्र विद्यालयीन शिक्षा लेने से इसे कोई नहीं समझ सकता। वेद यह संकेत करते हैं कि जिसकी परमेश्वर तथा गुरु के प्रति अविचल श्रद्धा है उसी को वैदिक ज्ञान प्राप्त हो पाता है।
ध्रुव महाराज तो वह आदर्श हैं कि वे अपने गुरु नारदमुनि के आदेशानुसार भगवद्भक्ति में लगे और उनके दृढ़ संकल्प तथा तपस्या से भक्ति करने के फलस्वरूप भगवान् उनके समक्ष साक्षात् प्रकट हुए। ध्रुव अभी बालक ही थे। वे भगवान् की उत्तम स्तुति करना चाहते थे, किन्तु पर्याप्त ज्ञान न होने से वे संकोच कर रहे थे, किन्तु जैसे ही उन्होंने अपना शंख उनके मस्तक पर छुआया, भगवान् की कृपा से उन्हें वैदिक ज्ञान पूर्णत: ज्ञात हो गया। निष्कर्ष यह है कि जीव तथा परमात्मा के अन्तर को ठीक-ठीक जान लेने पर यह ज्ञान आधारित है। व्यष्टि आत्मा परमात्मा का नित्य दास है; अत: परमात्मा की सेवा करना ही उसका परम धर्म है। यही भक्तियोग या भक्ति-भाव कहलाता है। ध्रुव महाराज ने जो स्तुति की वह निर्विशेषवादी दार्शनिक के रूप में नहीं, अपितु भक्त रूप में की। इसीलिए यहाँ पर स्पष्ट रूप से भक्ति भाव का उल्लेख है। परमेश्वर के प्रति प्रस्तुत की जाने वाली वही स्तुतियाँ योग्य हैं, जिनका यश दूर-दूर तक फैलता है। ध्रुव महाराज अपने पिता का राज्य प्राप्त करना चाह रहे थे, किन्तु पिता ने तो उन्हें गोद तक में बिठाने से इनकार कर दिया था। अत: उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए भगवान् ने पहले ही ध्रुवलोक की सृष्टि की जिसका विनाश ब्रह्माण्ड के प्रलय के समय भी नहीं हो सकता। ध्रुव महाराज को यह सिद्धि हड़बड़ी में नहीं मिली, उन्होंने बड़े ही धैर्य से गुरु के आदेश का पालन किया जिससे उन्हें भगवान् के साक्षात् दर्शन प्राप्त हो सके। अब भगवान् की अहैतुकी कृपा से वे और अच्छे ढंग से भगवान् की स्तुति करने में समर्थ हुए। परमेश्वर का गुणगान या स्तुति करने के लिए भगवान् की कृपा होनी चाहिए। जब तक कोई भगवान् की अहैतुकी कृपा प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक वह भगवान् के यश का अंकन नहीं कर सकता।
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