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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 52
 
 
श्लोक  4.9.52 
अभ्यर्चितस्त्वया नूनं भगवान्‌प्रणतार्तिहा ।
यदनुध्यायिनो धीरा मृत्युं जिग्यु: सुदुर्जयम् ॥ ५२ ॥
 
शब्दार्थ
अभ्यर्चित:—पूजित; त्वया—तुम्हारे द्वारा; नूनम्—फिर भी; भगवान्—भगवान्; प्रणत-आर्ति-हा—जो अपने भक्तों को संकट से उबार सके; यत्—जिसको; अनुध्यायिन:—निरन्तर ध्यान धरते हुए; धीरा:—परम साधु पुरुष; मृत्युम्—मृत्यु को; जिग्यु:— जीत लिया; सुदुर्जयम्—जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है ।.
 
अनुवाद
 
 हे रानी, आपने अवश्य ही उन भगवान् की पूजा की होगी, जो भक्तों को बड़े संकट से उबारनेवाले हैं। जो मनुष्य निरन्तर उनका ध्यान करते हैं, वे जन्म तथा मृत्यु की प्रक्रिया से आगे निकल जाते हैं। यह सिद्धि प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है।
 
तात्पर्य
 रानी सुनीति ने तो ध्रुव को खोया हुआ समझ लिया था, किन्तु उनकी अनुपस्थिति में वह लगातार भगवान् का ध्यान करती रही, जो भक्तों को समस्त संकटों से उबारनेवाले हैं। घर से दूर रह कर मधुवन में ध्रुव महाराज ने ही कठिन तपस्या नहीं की, वरन् घर पर रह कर उनकी माता भी उनकी रक्षा और कल्याण के लिए निरन्तर भगवान् से प्रार्थना करती थीं। दूसरे शब्दों में, माता तथा पुत्र दोनों ही भगवान् की पूजा करते थे और दोनों को परमेश्वर का परम आशीर्वाद प्राप्त हो सका। सुदुर्जयम् शब्द जो विशेषण की तरह प्रयुक्त है और जिसका अर्थ है कि मृत्यु को कोई जीत नहीं सकता, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जब ध्रुव महाराज घर से दूर थे तो उनके पिता ने उन्हें मृत समझ लिया था। सामान्य रूप से यदि किसी राजा का पाँच वर्ष का पुत्र घर से दूर जंगल में हो तो उसे मृत समझ लिया जाएगा, किन्तु भगवान् की कृपा से वह न केवल सुरक्षित था, वरन् उसे परम सिद्धि का वरदान भी प्राप्त हुआ था।
 
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