लाल्यमानम्—प्रशंसित; जनै:—जनता द्वारा; एवम्—इस प्रकार; ध्रुवम्—महाराज ध्रुव को; स-भ्रातरम्—अपने भाई के साथ; नृप:—राजा; आरोप्य—चढ़ाकर; करिणीम्—हथिनी की पीठ पर; हृष्ट:—प्रसन्न; स्तूयमान:—तथा प्रशंसित होकर; अविशत्— वापस आया; पुरम्—अपनी राजधानी को ।.
अनुवाद
मैत्रेय मुनि ने आगे बताया : हे विदुर, सभी लोग जब इस प्रकार से ध्रुव महाराज की बड़ाई कर रहे थे तो राजा अत्यन्त प्रसन्न था। उसने ध्रुव तथा उनके भाई को एक हथिनी की पीठ पर सवार कराया। इस प्रकार वह अपनी राजधानी लौट आया, जहाँ सभी वर्ग के लोगों ने उसकी प्रशंसा की।
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