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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 54
 
 
श्लोक  4.9.54 
तत्र तत्रोपसंक्लृप्तैर्लसन्मकरतोरणै: ।
सवृन्दै: कदलीस्तम्भै: पूगपोतैश्च तद्विधै: ॥ ५४ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र तत्र—जहाँ तहाँ; उपसङ्कि़प्तै:—बनाये गये; लसत्—चमकीले; मकर—मगर के आकार के; तोरणै:—मेहराबदार दरवाजों से; स-वृन्दै:—फूलों तथा फलों के गुच्छों से; कदली—केले के वृक्षों के; स्तम्भै:—ख भों से; पूग-पोतै:—सुपारी के नये पौधों से; —भी; तत्-विधै:—उस प्रकार का ।.
 
अनुवाद
 
 सारा नगर केले के स्तम्भों से सजाया गया था, जिनमें फूलों तथा फलों के गुच्छे लटक रहे थे और जहाँ-तहाँ पत्तियों तथा टहनियों से युक्त सुपारी के वृक्ष दिख रहे थे। ऐसे अनेक तोरण भी बनाये गये थे, जो मगर के आकार के थे।
 
तात्पर्य
 शुभ अवसरों पर ताड़ की हरी पत्तियों, नारियल के वृक्षों, सुपारी के वृक्षों तथा केले के वृक्षों एवं फल, फूल, तथा पत्तियों से सजावट करने की शुभ प्रथा भारत में अत्यन्त प्राचीन है। अपने महान् पुत्र ध्रुव महाराज के स्वागतार्थ राजा उत्तानपाद ने अच्छा प्रबन्ध कर रखा था और सभी नागरिक इस समारोह में उत्साहपूर्वक सम्मिलित हुए।
 
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