श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 55
 
 
श्लोक  4.9.55 
चूतपल्लववास:स्रङ्‍मुक्तादामविलम्बिभि: ।
उपस्कृतं प्रतिद्वारमपां कुम्भै: सदीपकै: ॥ ५५ ॥
 
शब्दार्थ
चूत-पल्लव—आम की पत्तियों से; वास:—वस्त्र; स्रक्—फूल की मालाएँ; मुक्ता-दाम—मोती की लड़ें; विलम्बिभि:— लटकती हुई; उपस्कृतम्—सुसज्जित; प्रति-द्वारम्—प्रत्येक द्वार पर; अपाम्—जल से पूर्ण; कुम्भै:—जलपात्रों से; स-दीपकै:— जलते हुए दीपों से ।.
 
अनुवाद
 
 द्वार-द्वार पर जलते हुए दीपक और तरह-तरह के रंगीन वस्त्र, मोती की लड़ों, पुष्पहारों तथा लटकती आम की पत्तियों से सज्जित बड़े-बड़े जल के कलश रखे हुए थे।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥