श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 58-59
 
 
श्लोक  4.9.58-59 
ध्रुवाय पथि द‍ृष्टाय तत्र तत्र पुरस्त्रिय: ।
सिद्धार्थाक्षतदध्यम्बुदूर्वापुष्पफलानि च ॥ ५८ ॥
उपजह्रु: प्रयुञ्जाना वात्सल्यादाशिष: सती: ।
श‍ृण्वंस्तद्वल्गुगीतानि प्राविशद्भवनं पितु: ॥ ५९ ॥
 
शब्दार्थ
ध्रुवाय—ध्रुव पर; पथि—मार्ग पर; दृष्टाय—देखी हुई; तत्र तत्र—जहाँ-तहाँ; पुर-स्त्रिय:—घरों की महिलाएँ; सिद्धार्थ—सफेद सरसों; अक्षत—जौ; दधि—दही; अम्बु—जल; दूर्वा—दूब; पुष्प—फूल; फलानि—फल; च—भी; उपजह्रु:—वर्षा की; प्रयुञ्जाना:—उच्चारण करते हुए; वात्सल्यात्—वासल्यभाव से; आशिष:—आशीर्वाद; सती:—भद्र महिलाएँ; शृण्वन्—सुनते हुए; तत्—उनके; वल्गु—अत्यन्त मधुर; गीतानि—गीत; प्राविशत्—प्रविष्ट किया; भवनम्—महल; पितु:—पिता के ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार जब ध्रुव महाराज मार्ग से जा रहे थे तो पास-पड़ोस की समस्त भद्र महिलाएँ उन्हें देखने के लिए एकत्र हो गईं, वे वात्सल्य-भाव से अपना-अपना आशीर्वाद देने लगीं और उन पर सफेद सरसों, जौ, दही, जल, दूब, फल तथा फूल बरसाने लगीं। इस प्रकार ध्रुव महाराज स्त्रियों द्वारा गाये गये मनोहर गीत सुनते हुए अपने पिता के महल में प्रविष्ट हुए।
 
 
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