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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 61
 
 
श्लोक  4.9.61 
पय:फेननिभा: शय्या दान्ता रुक्‍मपरिच्छदा: ।
आसनानि महार्हाणि यत्र रौक्‍मा उपस्करा: ॥ ६१ ॥
 
शब्दार्थ
पय:—दूध; फेन—फेना, झाग; निभा:—सदृश; शय्या:—बिस्तर; दान्ता:—हाथी-दाँत के बने; रुक्म—सुनहरे; परिच्छदा:— कामदार; आसनानि—आसन; महा-अर्हाणि—अत्यन्त मूल्यवान; यत्र—जहाँ; रौक्मा:—सुनहले; उपस्करा:—सामान ।.
 
अनुवाद
 
 महल में जो शयन-शय्या थी, वह दूध के फेन के समान श्वेत तथा अत्यन्त मुलायम थी। उसके भीतर की पलंगें हाथी-दाँत की थीं, जिनमें सोने की कारीगरी थी और कुर्सियाँ, बेन्चें तथा अन्य आसन एवं सामान सोने के बने हुए थे।
 
 
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