श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 62
 
 
श्लोक  4.9.62 
यत्र स्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
मणिप्रदीपा आभान्ति ललनारत्नसंयुता: ॥ ६२ ॥
 
शब्दार्थ
यत्र—जहाँ; स्फटिक—संगमरमर की; कुड्येषु—दीवारों पर; महा-मारकतेषु—मरकतमणि जैसी बहुमूल्य मणियों से सज्जित; च—भी; मणि-प्रदीपा:—मणियों के दीपक; आभान्ति—प्रकाश कर रहे थे; ललना—स्त्री-मूर्ति; रत्न—मणियों से निर्मित; संयुता:—पर रखी ।.
 
अनुवाद
 
 राजा का महल संगमरमर की दीवालों से घिरा था, जिन पर बहुमूल्य मरकत मणियों से पच्चीकारी की गई थी और जिन पर हाथ में प्रदीप्त मणिदीपक लिए सुन्दर स्त्रियों जैसी मूर्तियाँ लगी थीं।
 
तात्पर्य
 उत्तानपाद के महल का यह वर्णन श्रीमद्भागवत की रचना के पूर्व हजारों वर्ष पहले की दशा को बताता है। चूँकि यह कहा गया है कि महाराज ध्रुव ने छत्तीस हजार वर्ष राज्य किया, अत: वे सत्ययुग में रहे होंगे. जब मनुष्य एक लाख वर्ष जीवित रहते थे। चारों युगों की जीवन-अवधि का वर्णन वैदिक साहित्य में उपलब्ध है। सत्ययुग में लोग एक लाख वर्ष जीवित रहते थे, त्रेता में दस हजार वर्ष, द्वापर में एक हजार वर्ष और इस कलियुग में लोग सौ वर्ष तक जीवित रह सकते हैं। प्रत्येक युग में मनुष्य का जीवन-काल क्रमश: ९० प्रतिशत घटता जाता है। इस प्रकार एक लाख से दस हजार, फिर, एक हजार और तब सौ वर्ष।

कहा जाता है कि ध्रुव महाराज ब्रह्मा के परनाती थे। इससे यह सूचित होता है कि वे सृष्टि के प्रारम्भ में सत्ययुग में विद्यमान थे। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, ब्रह्मा के एक दिन में कई सत्ययुग होते हैं। वैदिक गणना से इन समय अट्ठाइसवाँ कल्प चल रहा है। गणना से पता चलेगा कि ध्रुव महाराज लाखों वर्ष पूर्व हुए थे, किन्तु उनके पिता के महल का वर्णन इतना भव्य है कि हम यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि चालीस-पचास हजार वर्ष पूर्व मानवीय सभ्यता उन्नत न थी। अभी मुगल काल तक महाराज उत्तानपाद के महल जैसी दीवालें होती थीं। जिस किसी ने दिल्ली के लाल किले को देखा है, उसने यह देखा होगा कि दीवालें संगमरमर की हैं और किसी समय रत्नों से जटित थीं। ब्रिटिश काल में ये रत्न निकाल लिए गये और ब्रिटिश संग्रहालय में भेज दिये गये।

प्राचीन काल में सांसारिक वैभव मणियों, संगमरमर, रेशम, हाथी दाँत, सोना तथा चाँदी जैसे प्राकृतिक साधनों पर निर्भर था। उस काल का आर्थिक विकास बड़ी-बड़ी मोटरकारों पर आश्रित नहीं था। मानवीय सभ्यता की प्रगति औद्योगिक संस्थानों पर नहीं, वरन् प्राकृतिक सम्पदा और भोजन के स्वामित्व पर निर्भर करती है और वे सब भगवान् द्वारा प्रदत्त हैं। अत: हम अपना समय आत्म- साक्षात्कार तथा मानव शरीर की सार्थकता में लगा सकते हैं।

इस श्लोक का एक दूसरा पक्ष भी है कि शीघ्र ही ध्रुव महाराज के पिता उत्तानपाद महल की अपनी आसक्ति त्याग कर आत्म-साक्षात्कार के लिए जंगल के लिए प्रस्थान करेंगे। श्रीमद्भागवत के इस वर्णन से हम आधुनिक सभ्यता तथा अन्य युगों—सत्य युग, त्रेता युग तथा द्वापर युग—की मानवीय सभ्यता का सम्पूर्ण तुलनामत्मक अध्ययन कर सकते हैं।

 
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