श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 64
 
 
श्लोक  4.9.64 
वाप्यो वैदूर्यसोपाना: पद्मोत्पलकुमुद्वती: ।
हंसकारण्डवकुलैर्जुष्टाश्चक्राह्वसारसै: ॥ ६४ ॥
 
शब्दार्थ
वाप्य:—बावडिय़ाँ; वैदूर्य—वैदूर्य (पुखराज); सोपाना:—सीढिय़ों से; पद्म—कमल; उत्पल—नील कमल; कुमुत्-वती:— कुमुदिनियों से पूर्ण; हंस—हंस पक्षी; कारण्डव—तथा बत्तखें; कुलै:—के झुंडों से; जुष्टा:—निवसित; चक्राह्व—चक्रवाक से; सारसै:—तथा सारसों से ।.
 
अनुवाद
 
 बावडिय़ों में पुखराज की सीढिय़ाँ थीं। इन बाबडिय़ाँ में विविध रंग के कमल तथा कुमुदिनियाँ, हंस, कारण्डव, चक्रवाक, सारस तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पक्षी दिखाई पड़ रहे थे।
 
तात्पर्य
 ऐसा प्रतीत होता है कि महल के चारों ओर परकोटे तथा भाँति-भाँति के वृक्षों से युक्त उद्यान ही न थे, वरन् मानव-निर्मित बावडिय़ाँ भी थीं, जिनका जल रंग-बिरंगे कमल के फूलों तथा कुमुदिनियों से भरा पड़ा था। बावड़ी में उतरने के लिए पुखराज जैसे मूल्यवान हीरों की सीढिय़ाँ बनाई गई थीं। इस प्रकार सुन्दर उद्यानों से घिरे महलों में हंस, चक्रवाक, कारण्डव तथा सारस जैसे प्रमुख पक्षी भी थे। ये पक्षी सामान्यत: ऐसे गन्दे स्थानों में नहीं रहते हैं, जहाँ कौए रहते हैं। इस वर्णन से कल्पना की जा सकती है कि नगर का वातावरण कितना स्वास्थ्यप्रद तथा सुन्दर था!
 
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