अपनी वृद्धावस्था और आत्म-कल्याण पर विचार करके, राजा उत्तानपाद ने अपने आपको सांसारिक कार्यों से विरक्त कर लिया और जंगल में चले गये।
तात्पर्य
यही राजर्षि का लक्षण है। राजा उत्तानपाद अत्यन्त ऐश्वर्यशाली थे और विश्व के सम्राट थे, अत: उनकी ये आसक्तियाँ महान् थीं। आधुनिक राजनीतिज्ञ राजा उत्तानपाद जैसे राजाओं सदृश महान् नहीं होते। क्योंकि उन्हें कुछ काल के लिए अधिकार मिलते हैं, अत: वे इतने आसक्त हो जाते हैं कि उस पद से तब तक नहीं हटते, जब तक क्रूर काल उन्हें उठा न ले जाये या कोई विरोधी पार्टीवाला मार न दे। यह हमारा अनुभव है कि भारत में राजनीतिज्ञ अपनी मृत्यु तक पद-त्याग नहीं करते, किन्तु प्राचीन काल में ऐसी प्रथा न थी, जैसाकि उत्तानपाद के आचरण से स्पष्ट है। अपने सुयोग्य पुत्र को सिंहासन पर बैठाने के तुरन्त बाद वे घर तथा अपना महल छोड़ कर चले गये। ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनमें प्रौढ़ अवस्था प्राप्त होने पर राजा अपने सिंहासन त्याग कर जंगल में तपस्या करने चले गये। मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य तपस्या करना है। जिस प्रकार ध्रुव महाराज ने अपने बाल्यपन में तपस्या की, उसी प्रकार उनके पिता उत्तानपाद ने भी बुढ़ापे में जंगल जाकर तप किया। किन्तु आजकल यह सम्भव नहीं कि लोग अपना घर छोड़ कर जंगल जाकर तपस्या करें। किन्तु यदि सभी आयु के लोग कृष्णभावनामृत-आन्दोलन की शरण ग्रहण करें तथा अवैध मैथुन, मद्यपान, द्यूत क्रीड़ा, मांसभक्षण जैसे सामान्य कृत्यों के त्याग को ही तपस्या मान लें तथा नियमित रूप से (१६ माला) हरे कृष्ण मंत्र का जप करें तो इस विधि से इस संसार में सरलता से मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध के अन्तर्गत “ध्रुव महाराज का घर लौटना” नामक नवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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