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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  4.9.8 
त्वद्दत्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वं
सुप्तप्रबुद्ध इव नाथ भवत्प्रपन्न: ।
तस्यापवर्ग्यशरणं तव पादमूलं
विस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबन्धो ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
त्वत्-दत्तया—तुम्हारे द्वारा प्रदत्त; वयुनया—ज्ञान से; इदम्—यह; अचष्ट—देख सकता है; विश्वम्—समग्र ब्रह्माण्ड; सुप्त प्रबुद्ध:—सोकर जगे हुए पुरुष; इव—के समान; नाथ—हे प्रभु; भवत्-प्रपन्न:—भगवान् ब्रह्मा, जो आपके शरणागत हैं; तस्य—उसका; आपवर्ग्य—मुक्ति के इच्छुक; शरणम्—शरण; तव—तुम्हारी; पाद-मूलम्—चरणकमल; विस्मर्यते—भुलाया जा सकता है; कृत-विदा—विद्वान पुरुष; कथम्—किस प्रकार; आर्त-बन्धो—हे दुखियों के मित्र ।.
 
अनुवाद
 
 हे स्वामी, ब्रह्मा पूर्ण रूप से आपके शरणागत हैं। आरम्भ में आपने उन्हें ज्ञान दिया तो वे समस्त ब्रह्माण्ड को उसी तरह देख और समझ पाये जिस प्रकार कोई मनुष्य नींद से जगकर तुरन्त अपने कार्य समझने लगता है। आप मुक्तिकामी समस्त पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं और आप समस्त दीन-दुखियों के मित्र हैं। अत: पूर्ण ज्ञान से युक्त विद्वान पुरुष आपको किस प्रकार भुला सकता है?
 
तात्पर्य
 शरणागत भक्त भगवान् को क्षण-भर के लिए भी नहीं भूलते। भक्त जानता है कि भगवान् की अहैतुकी कृपा उसके अनुमान से परे है; वह नहीं समझ पाता कि भगवत्कृपा से वह कितना लाभ उठा रहा है। जो भक्त जितना ही भगवद्भक्ति में अनुरक्त रहता है उसे भगवद्भक्ति से उतना ही प्रोत्साहन मिलता रहता है। भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि जो प्रेम तथा स्नेह से भगवान् की भक्ति में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें भगवान् अन्दर से बुद्धि प्रदान करता है और इस तरह वे और अधिक उन्नति कर सकते हैं। इस प्रकार प्रोत्साहन पाने के कारण भक्त भगवान् को क्षण-भर भी नहीं भूल सकता। वह उनका सदैव कृतज्ञ रहता है कि उनकी कृपा से उसे अधिकाधिक भक्ति करने की शक्ति प्राप्त हुई। भगवान् की कृपा से ज्ञान द्वारा सनक, सनातन तथा ब्रह्मा जैसे साधु पुरुषों को समग्र ब्रह्माण्ड देख सकने की शक्ति प्राप्त हो सकी। यहाँ पर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है कि कोई मनुष्य भले ही दिन भर अपने को निद्रा से दूर रखे, किन्तु जब तक उसे आत्म-प्रकाश प्राप्त नहीं होता वह सुप्तवत् ही रहता है। वह रात में सोकर दिन में अपना कार्य भले कर ले, किन्तु जब तक उसे आध्यात्मिक प्रकाश में कार्य करने के स्तर तक नहीं पहुँचता वह सोया हुआ ही समझा जाता है। अत: भक्त कभी भी भगवान् से प्राप्त लाभ को भुलाता नहीं।

भगवान् को यहाँ आर्त-बन्धु कहकर सम्बोधित किया गया है, जिसका अर्थ है, “दीन-दुखियों का मित्र।” जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, ज्ञान की खोज में जन्म-जन्मान्तर कठिन तपस्या करने के पश्चात् ही वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है और जब मनुष्य अपने को भगवान् को समर्पित कर देता है, तो वह बुद्धिमान बनता है। मायावादी दार्शनिक परमेश्वर को समर्पित नहीं होता, अत: उसे वास्तविक ज्ञान नहीं मिल पाता। पूर्णज्ञान प्राप्त भक्त भगवान् अनुग्रह को क्षणभर भी नहीं भूल पाता।

 
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