मानवर्धनो महताम् (“अपने से श्रेष्ठजनों के प्रति सम्मान प्रकट करना”) शब्दसमूह अत्यन्त सार्थक है। यद्यपि महाराज प्रियव्रत पहले से ही मुक्त पुरुष थे और भौतिक वस्तुओं के प्रति उनका कोई आकर्षण नहीं था, किन्तु ब्रह्माजी का मान रखने के लिए ही उन्होंने शासन-भार सँभालने में पूरा ध्यान दिया। अर्जुन ने भी ऐसा ही किया था। अर्जुन को राजनैतिक कार्यों में भाग लेने अथवा कुरुक्षेत्र में युद्ध करने में कोई अभिरुचि नहीं थी, किन्तु जब श्रीकृष्ण ने उन्हें वैसा करने का आदेश दिया, तो उन्होंने बड़े ही अच्छे ढंग से अपने कर्तव्य का पालन किया। जो नित्य ही भगवान् के चरणकमलों का ध्यान धरता है, वह इस संसार के समस्त कल्मषों से ऊपर रहता है। जैसाकि भगवद्गीता (६.४७) में कहा गया है— योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ॥
“समस्त योगियों में भी जो योगी श्रद्धाभाव से मेरे परायण होकर प्रेममय भक्तियोग के द्वारा मेरी दिव्य सेवा करता है, वह मुझसे परम अतरंग रूप में जुड़ा हुआ है और सबसे श्रेष्ठ है।” इसलिए महाराज प्रियव्रत मुक्त पुरुष एवं परम योगियों में से थे, फिर भी ब्रह्मा के आदेशानुसार वे बाह्य रूप से ब्रह्माण्ड के शासक बने। इस प्रकार अपने गुरुजनों के प्रति सम्मान का प्रदर्शन उनका एक और असाधारण गुण था। श्रीमद्भागवत (६.१७.२८) में कहा गया है—
नारायणपरा: सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति।
स्वर्गापवर्गनर्केष्वपि तुल्यार्थदर्शिन: ॥
यदि भगवान् की आज्ञापालन का अवसर आता है, तो वास्तविक रूप से बढ़ा-चढ़ा भक्त किसी प्रकार भयभीत नहीं होता। मुक्त पुरुष होते हुए भी प्रियव्रत द्वारा सांसारिक कार्यों में निरत होने का यही कारण है। इसी सिद्धान्त के कारण एक महाभागवत, जिसका इस संसार से कोई सरोकार नहीं होता, भक्ति के द्वितीय स्तर पर उतर कर विश्व भर में भगवान् की महिमा का उपदेश देता है।