यत्र—जिस स्थान में (भक्तों के समक्ष); उत्तम-श्लोक-गुण-अनुवाद:—श्रीभगवान् की लीलाओं तथा गुणों की चर्चा; प्रस्तूयते—प्रस्तुत की जाती है; ग्राम्य-कथा-विघात:—जिसके कारण लौकिक विषयों की चर्चा के लिए अवसर नहीं मिलता; निषेव्यमाण:—अत्यन्त मनोयोग से सुनी जाकर; अनुदिनम्—नित्यप्रति; मुमुक्षो:—भौतिक बंधन से निकलने के लिए इच्छुक व्यक्ति का; मतिम्—ध्यान; सतीम्—शुद्ध तथा सरल; यच्छति—लगा देती है; वासुदेवे—भगवान् वासुदेव के चरमकमलों में ।.
अनुवाद
यहां वर्णित वे शुद्ध भक्त कौन हैं? शुद्ध भक्तों की सभा में राजनीति या समाजशास्त्र जैसे सांसारिक विषयों पर चर्चा चलाने का प्रश्न ही नहीं उठता। वहाँ तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की लीलाओं, स्वरूप एवं गुणों की ही चर्चा होती है। उनकी प्रशंसा तथा उपासना पूर्ण मनोयोग से की जाती है। यहाँ तक कि विशुद्ध भक्तों की संगति से, ऐसे विषयों को लगातार आदर पूर्वक सुनने से ऐसा पुरुष जो परम सत्य में तदाकार होना चाहता है, वह भी अपने इस विचार को त्याग कर क्रमश: वासुदेव की सेवा में आसक्त हो जाता है।
तात्पर्य
इस श्लोक में शुद्ध भक्तों के लक्षण बताये गये हैं। शुद्ध भक्त कभी भी सांसारिक विषयों में रुचि नहीं रखता। श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों को सांसारिक विषयों के सम्बन्ध में चर्चा करने के लिए वर्जित किया है। ग्राम्य-वार्ता ना कहिबे—मनुष्य को चाहिए कि भौतिक जगत के समाचारों के विषय में वृथा चर्चा करने में संलग्न न हो। मनुष्य को इस प्रकार से समय नहीं गँवाना चाहिए। भक्त के जीवन का यह महत्त्वपूर्ण लक्षण है। भक्त के समक्ष श्रीकृष्ण की सेवा के अतिरिक्त कोई अन्य ध्येय नहीं होता। कृष्णभावनामृत आन्दोलन को इसलिए चलाया गया था जिससे लोगों को भगवान् की सेवा में निरन्तर व्यस्त रखा जा सके। इस संस्था के विद्यार्थी प्रात: पाँच बजे से लेकर रात्रि के दस बजे तक कृष्णभक्ति का अनुशीलन करते हैं। उन्हें राजनीति, समाजशास्त्र तथा सामयिक विषयों की वृथा चर्चा में समय गँवाने का अवसर ही नहीं मिल पाता। यह सब तो चलता ही रहेगा। भक्त को सकारात्मक और गम्भीर रूप से कृष्ण की भक्ति से सरोकार होता है।
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