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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 12: महाराज रहूगण तथा जड़ भरत की वार्ता  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  5.12.16 
तस्मान्नरोऽसङ्गसुसङ्गजात-
ज्ञानासिनेहैव विवृक्णमोह: ।
हरिं तदीहाकथनश्रुताभ्यां
लब्धस्मृतिर्यात्यतिपारमध्वन: ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मात्—इस कारण से; नर:—प्रत्येक व्यक्ति; असङ्ग—सांसारिक पुरुषों के संसर्ग से विरक्त होकर; सु-सङ्ग—भक्तों की संगति से; जात—उत्पन्न; ज्ञान-असिना—ज्ञान रूपी तलवार से; इह—इस भौतिक जगत में; एव—यहाँ तक कि; विवृक्ण-मोह:— मोह छिन्न-छिन्न हो जाता है; हरिम्—श्रीभगवान्; तद्-ईहा—उनके कार्यों का; कथन-श्रुताभ्याम्—श्रवण तथा कीर्तन इन दो विधियों से; लब्ध-स्मृति:—खोई चेतना प्राप्त हो जाती है; याति—प्राप्त करता है; अतिपारम्—परम अन्त; अध्वन:—परम धाम का ।.
 
अनुवाद
 
 उन्नत भक्तों की संगति मात्र से पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और फिर ज्ञान की तलवार से सांसारिक मोहों को छिन्न-भिन्न किया जा सकता है। भक्तों की संगति से ही श्रवण तथा कीर्तन (श्रवणं कीर्तनम्) द्वारा भगवान् की सेवा में अनुरक्त हुआ जा सकता है। इस प्रकार से अपने सुप्त कृष्णभावनामृत को जागृत किया जा सकता है और कृष्णभावनामृत के अनुशीलन द्वारा इसी जीवन में परमधाम को वापस जाया जा सकता है।
 
तात्पर्य
 भव-बंधन से मुक्त होने के लिए सांसारिक व्यक्तियों की संगति त्याग करके भक्तों की संगति करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में सकारात्मक तथा नकारात्मक विधियाँ बताई गई हैं। भक्तों की संगति से सुप्त कृष्णभावनामृत जागृत होती है। कृष्णभावनामृत आन्दोलन सबों के लिए यह अवसर प्रदान कर रहा है। जो भी कृष्णभक्ति में आगे बढऩा चाहता है उसे हम आश्रय देते हैं। हम उनके रहने तथा भोजन की व्यवस्था करते हैं जिससे वे शान्तिपूर्वक कृष्णभावनामृत का अनुशीलन करके इसी जीवन में परम धाम को प्राप्त हो सकें।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध के अन्तर्गत “महाराज रहूगण तथा जड़ भरत की वार्ता” नामक बारहवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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