ज्वरामयार्तस्य यथागदं सत्
निदाघदग्धस्य यथा हिमाम्भ: ।
कुदेहमानाहिविदष्टदृष्टे:
ब्रह्मन् वचस्तेऽमृतमौषधं मे ॥ २ ॥
शब्दार्थ
ज्वर—ज्वर, या ताप के; आमय—रोग से; आर्तस्य—पीडि़त पुरुष की; यथा—जिस प्रकार; अगदम्—औषधि दवा; सत्— सही; निदाघ-दग्धस्य—लू लगने पर; यथा—जैसे; हिम-अम्भ:—अति शीतल जल; कु-देह—इस शरीर में, जो मल-मूत्र जैसा गंदी वस्तुओं से पूरित है; मान—गर्व रूपी; अहि—सर्प से; विदष्ट—दंशित, काटा गया; दृष्टे:—दृष्टि वाले का; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ; वच:—शब्द, वाणी; ते—तुम्हारी; अमृतम्—अमृत; औषधम्—दवा; मे—मेरे लिए ।.
अनुवाद
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मेरा शरीर मल से पूर्ण और मेरी दृष्टि गर्व रूपी सर्प द्वारा दंशित है। अपनी भौतिक बुद्धि के कारण मैं रुग्ण हूँ। इस प्रकार के ज्वर से पीडि़त व्यक्ति के लिए आपके अमृतमय उपदेश वैसे ही हैं जैसे कि धूप (लू) से झुलसे हुए व्यक्ति के लिए शीतल जल होता है।
तात्पर्य
बद्धजीव का शरीर गन्दी वस्तुओं—अस्थि, रक्त, मूत्र, मल इत्यादि—से भरा रहता है। तो भी इस संसार के बुद्धिमान मनुष्य सोचते हैं कि वे रक्त, अस्थि, रक्त, मूत्र तथा मल के योग से बने हैं। यदि ऐसा है, तो फिर इन सर्वसुलभ पदार्थों से अन्य बुद्धिमान व्यक्ति क्यों नहीं बनाये जा सकते? सम्पूर्ण संसार देहात्मबुद्धि से अभिभूत है और भले मनुष्य के रहने के लिए नारकीय परिस्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं। जड़ भरत ने राजा रहूगण को जो उपदेश दिये हैं, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। वे सर्पदंश की औषधि तुल्य हैं। वैदिक उपदेश झुलसती गर्मी से पीडि़त व्यक्ति के लिए अमृत एवं शीतल जल के समान हैं।
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