यदा क्षितावेव चराचरस्य
विदाम निष्ठां प्रभवं च नित्यम् ।
तन्नामतोऽन्यद् व्यवहारमूलं
निरूप्यतां सत् क्रिययानुमेयम् ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
यदा—अत:; क्षितौ—पृथ्वी पर; एव—निश्चय ही; चर-अचरस्य—चर तथा अचर का; विदाम—हम जानते हैं; निष्ठाम्—प्रलय, संहार; प्रभवम्—सृष्टि; च—तथा; नित्यम्—प्रकृति के नियमों से नियमित रूप से; तत्—वह; नामत:—केवल नाम से; अन्यत्—अन्य; व्यवहार-मूलम्—भौतिक कार्यों का कारण; निरूप्यताम्—निश्चित किया गया; सत्-क्रियया—वास्तविक कार्य से; अनुमेयम्—निष्कर्ष निकालना चाहिए ।.
अनुवाद
हम इस पृथ्वी के ऊपर विभिन्न रूपों में जीवात्माएँ हैं। हममें से कुछ गतिशील हैं, तो कुछ गति नहीं करते। हम सभी उत्पन्न होते हैं, कुछ समय तक रहते हैं और नष्ट हो जाने पर पृथ्वी में पुन: मिल जाते हैं। हम सभी पृथ्वी के विभिन्न रूपान्तर (पार्थिव) हैं; विभिन्न शरीर तथा उपाधियाँ पृथ्वी के रूपान्तर मात्र हैं और नाम के लिए ही विद्यमान रहती हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु पृथ्वी से निकलती है और जब सब कुछ विनष्ट हो जाता है, तो वह फिर पृथ्वी में मिल जाती है। दूसरे शब्दों में, हम केवल धूल हैं और धूल ही रहेंगे। सबों को इस पर विचार करना चाहिए।
तात्पर्य
ब्रह्मसूत्र (२.१.१४) में कहा गया है कि—तद्-अनन्यत्वम् आरभम्भण-शब्दादिभ्य:। यह विराट जगत पदार्थ तथा आत्मा का मिश्रण है किन्तु इसका कारण तो परब्रह्म श्रीभगवान् हैं। अत: श्रीमद्भागवत (१.५.२०) में कहा गया है कि—इदं हि विश्वं भगवानिवेतर:। यह सम्पूर्ण विराट् जगत श्रीभगवान् की शक्ति का रूपान्तर मात्र है, किन्तु मोहवश किसी की समझ में यह नहीं आता कि ईश्वर इस भौतिक जगत से अभिन्न है। वस्तुत: वह भिन्न नहीं है। यह भौतिक जगत उसकी विभिन्न शक्तियों का केवल रूपान्तर है—परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते। वेदों में इसके अन्य रूप भी हैं—सर्वं खल्विदं ब्रह्म। द्रव्य तथा आत्मा भगवान् से अभिन्न हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता (७.४) में इसकी पुष्टि की है—मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा। माया श्रीकृष्ण की शक्ति है, किन्तु वह उनसे पृथक् है। आत्म-शक्ति भी उन्हीं की शक्ति है, किन्तु यह उनसे अभिन्न है। जब यह माया परमात्मा की सेवा में तत्पर होती है, तो वह तथाकथित भौतिक शक्ति भी आत्मशक्ति में बदल जाती है, जिस प्रकार आग में रखने पर लोहा भी आग हो जाता है। जब हम विश्लेषण द्वारा यह समझ सकेंगे कि श्रीभगवान् कारणस्वरूप हैं, तो हमारा ज्ञान पूर्ण होगा। विभिन्न शक्तियों के रूपान्तर मात्र को समझ लेना अर्धज्ञान है। हमें परम कारण तक पहुँचना है। न ते विदु: स्वार्थ गतिं हि विष्णुम्। जो लोग समस्त स्रोतों के मूल कारण को जानने में रुचि नहीं रखते उनका ज्ञान कभी पूर्ण नहीं होता। इस प्रत्यक्ष संसार में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो श्रीभगवान् की परम शक्ति से उत्पन्न न हो सके। पृथ्वी से प्राप्त सुगन्धियाँ पृथ्वी से ही उद्भूत हैं, भले ही हम उन्हें नाना प्रकार से व्यवहार में लाएं किन्तु इनका मूल कारण पृथ्वी ही है और कुछ नहीं। मिट्टी के बने जलपात्र का उपयोग भले ही हम कुछ काल तक जल भरने के लिए करें, किन्तु वह पात्र मिट्टी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अत: पात्र में और उसके मूल अवयव के अर्थात् मिट्टी में कोई अन्तर नहीं है। यह मात्रशक्ति का विभिन्न परिवर्तन है। मूल कारण या मूल अवयव तो श्रीभगवान् हैं और उसकी विभिन्न किस्में आनुषंगिक फल हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है—यथा सौम्यकेन मृतपिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्याद् वाचारम्भनां विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्। पृथ्वी का अध्ययन करने वाले को स्वभावत: पृथ्वी के आनुषंगिक फलों का भी ज्ञान हो जाता है। इसीलिए वेद कहते हैं—यस्मिन् विज्ञाते सर्वम् एवं विज्ञातं भवति—यदि कोई आदि कारण कृष्ण को, जो समस्त कारणों के भी कारण हैं, जान लेता है, तो उसे प्रत्येक वस्तु का ज्ञान हो जाता है, भले ही वह विभिन्न किस्मों (प्रकारों) में प्रस्तुत क्यों न हो। इन विभिन्न किस्मों (प्रकारों) के मूल कारण को समझने पर प्रत्येक वस्तु का ज्ञान हो जाता है। यदि हम प्रत्येक वस्तु के मूल कारण श्रीकृष्ण को समझ सकें तो हमें उसकी गौण किस्मों (प्रकारों) को पृथक् से जानने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। अत: प्रारम्भ से ही कहा गया है—सत्यं परं धीमहि। मनुष्य को परम सत्य श्रीकृष्ण या वासुदेव पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। वासुदेव शब्द पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का सूचक है, जो समस्त कारणों के कारण हैं। मत्- स्थानि सर्व-भूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:। यह प्रत्यक्ष तथा सात्विक दर्शन का सार है। व्यवहार-संसार तात्विक संसार पर आश्रित है। इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ परमेश्वर की शक्ति के कारण विद्यमान है यद्यपि हमारी अविद्या के कारण परमेश्वर प्रत्येक पदार्थ में दिखाई नहीं पड़ता।
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