नमो महद्भ्योऽस्तु नम: शिशुभ्यो
नमो युवभ्यो नम आवटुभ्य: ।
ये ब्राह्मणा गामवधूतलिङ्गा-
श्चरन्ति तेभ्य: शिवमस्तु राज्ञाम् ॥ २३ ॥
शब्दार्थ
नम:—नमस्कार है; महद्भ्य:—महापुरुषों को; अस्तु—हो; नम:—मेरा नमस्कार; शिशुभ्य:—जो महापुरुष शिशु रूप में हो, उनको; नम:—सादर नमस्कार; युवभ्य:—जो युवा (तरुण) हों, उन्हें; नम:—सादर नमस्कार; आ-वटुभ्य:—जो बालक के रूप में हों उन्हें; ये—जो सब; ब्राह्मणा:—दिव्य ज्ञान में सिद्ध; गाम्—पृथ्वी; अवधूत-लिङ्गा:—विभिन्न शारीरिक वेषों में छिपे रहने वाले; चरन्ति—घूमते रहते हैं; तेभ्य:—उनसे; शिवम् अस्तु—कल्याण हो; राज्ञाम्—राजाओं को (जो सदैव गर्वित रहते हैं) ।.
अनुवाद
मैं उन महापुरुषों को नमस्कार करता हूँ जो इस धरातल पर शिशु, तरुण बालक, अवधूत या महान् ब्राह्मण के रूप में विचरण करते हैं। यदि वे विभिन्न वेशों में छिपे हुए हैं, तो भी मैं उन सबको नमस्कार करता हूँ। उनके अनुग्रह से उनका अपमान करने वाले राजवंशों का कल्याण हो।
तात्पर्य
राजा रहूगण को अत्यन्त पश्चात्ताप हुआ, क्योंकि उसने जड़ भरत को अपनी पालकी ढोने के लिए बाध्य किया था। अत: उसने समस्त प्रकार के ब्राह्मणों तथा स्वरूपसिद्ध पुरुषों की वन्दना करनी प्रारम्भ की, चाहे वे शिशु रूप में खेल रहे हों या किसी भी वेश में छिपे हुए हों। चारों कुमार पाँचवर्षीय बालकों के रूप में सर्वत्र घूमते थे। इसी प्रकार अनेक ब्राह्मण बच्चे, तरुण या अवधूत रूप में विश्व का परिभ्रण करते रहते हैं। सामान्यत: राजा लोग अहंकारवश इन महापुरुषों को अपमानित करते रहते हैं, अत: राजा रहूगण ने उनको ही सादर नमस्कार किया है, जिससे अहंकारी राजवंश नरक को न प्राप्त हो। यदि कोई महापुरुष का अपमान करता है, तो श्रीभगवान् उसे क्षमा नहीं करते, भले ही उन महापुरुषों को यह अपमान जैसा न लगता हो। दुर्वासा ने महाराज अम्बरीष का अपमान किया था, अत: जब वे भगवान् विष्णु के पास क्षमा के लिए पहुँचे तो उन्होंने क्षमा प्रदान नहीं की—उन्हें महाराज अम्बरीष के चरणों पर गिरना पड़ा, यद्यपि वे क्षत्रिय गृहस्थ थे। मनुष्य को चाहिए कि वह वैष्णव तथा ब्राह्मण के चरणकमलों का अपमान न करे।
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