श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 15: राजा प्रियव्रत के वंशजों का यश-वर्णन  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  5.15.13 
यत्प्रीणनाद्ब‍‌र्हिषि देवतिर्यङ्-मनुष्यवीरुत्तृणमाविरिञ्चात् ।
प्रीयेत सद्य: स ह विश्वजीव:प्रीत: स्वयं प्रीतिमगाद्गयस्य ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
यत्-प्रीणनात्—श्रीभगवान् के प्रसन्न होने से; बर्हिषि—यज्ञ क्षेत्र में; देव-तिर्यक्—देवता तथा निम्न पशु; मनुष्य—मानव समाज; वीरुत्—पादप तथा वृक्ष; तृणम्—घास; आ-विरिञ्चात्—भगवान् ब्रह्मा तक; प्रीयेत—सन्तुष्ट हो जाता है; सद्य:— तुरन्त; स:—श्रीभगवान्; ह—निश्चय ही; विश्व-जीव:—समस्त संसार के जीवात्माओं का पालन करने वाला; प्रीत:—यद्यपि सहज तुष्ट हैं; स्वयम्—साक्षात्; प्रीतिम्—सन्तोष के; अगात्—प्राप्त हुआ; गयस्य—महाराज गय के ।.
 
अनुवाद
 
 जब परमेश्वर किसी व्यक्ति के कर्मों से प्रसन्न होते हैं, तो ब्रह्मा से लेकर समस्त देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, लताएँ, तृण तथा अन्य समस्त जीवात्माएँ स्वत: प्रसन्न हो जाती हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सबों के परमात्मा हैं और वे स्वभाव से परम प्रसन्न रहते हैं। तो भी वे महाराज गय के यज्ञ क्षेत्र में आये और उन्होंने कहा, “मैं पूर्णतया प्रसन्न हूँ।”
 
तात्पर्य
 यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि केवल श्रीभगवान् को प्रसन्न कर लेने पर देवता तथा अन्य समस्त जीवात्माएँ बिना किसी भेदभाव के प्रसन्न हो जाती हैं। वृक्ष की जड़ों को सींचने से सभी शाखाएँ, पत्तियाँ तथा फूल हरे-भरे हो जाते हैं। यद्यपि श्रीभगवान् आत्म-तुष्ट रहने वाले हैं, किन्तु महाराज गय के आचरण से परम प्रसन्न होकर वे उनके यज्ञ क्षेत्र में स्वयं आये और उन्होंने कहा, “मैं पूर्ण सन्तुष्ट हूँ।” भला महाराज गय की समता कौन कर सकता है?
 
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