श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 15: राजा प्रियव्रत के वंशजों का यश-वर्णन  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  5.15.16 
तत्रायं श्लोक:—
प्रैयव्रतं वंशमिमं विरजश्चरमोद्भ‍व: ।
अकरोदत्यलं कीर्त्या विष्णु: सुरगणं यथा ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—उस प्रसंग में; अयम् श्लोक:—यह प्रसिद्ध श्लोक है; प्रैयव्रतम्—राजा प्रियव्रत से चलने वाला; वंशम्—वंश; इमम्— यह; विरज:—राजा विरज; चरम-उद्भव:—एक सौ पुत्रों (जिनमें शतजित् सर्वोपरि था) का स्रोत; अकरोत्—अलंकृत किया; अति-अलम्—अत्यधिक; कीर्त्या—अपनी कीर्ति से; विष्णु:—भगवान् विष्णु, श्रीभगवान्; सुर-गणम्—देवता गण; यथा— जिस प्रकार ।.
 
अनुवाद
 
 राजा विरज के सम्बन्ध में यह श्लोक प्रसिद्ध है (जिसका अर्थ है)—“अपने उच्च गुणों तथा व्यापक कीर्ति के कारण राजा विरज उसी प्रकार से प्रियव्रत राजा के वंश के मणि हो गए जिस प्रकार भगवान् विष्णु अपनी दिव्य शक्ति द्वारा देवताओं को विभूषित करते और उन्हें आशीष देते हैं।”
 
तात्पर्य
 पुष्पित वृक्ष अपने सुगन्धित फूलों के कारण उद्यान में अच्छी ख्याति अर्जित करता है। इसी प्रकार यदि किसी वंश में कोई प्रसिद्ध व्यक्ति होता है, तो उसकी उपमा वन के सुगन्धित पुष्प से दी जाती है। उसके कारण पूरा वंश इतिहास-प्रसिद्ध हो सकता है। चूँकि श्रीकृष्ण ने यदु वंश में जन्म धारण किया, अत: यदु वंश तथा यादव लोग सर्वदा के लिए विख्यात रहे हैं। राजा विरज के प्रकट होने से महाराज प्रियवत का वंश सदा से प्रसिद्ध रहा है।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध के अन्तर्गत “राजा प्रियव्रत के वंशजों का यश वर्णन” नामक पन्द्रहवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥