मन्दरोत्सङ्ग एकादशशतयोजनोत्तुङ्गदेवचूतशिरसो गिरिशिखरस्थूलानि फलान्यमृतकल्पानि पतन्ति ॥ १६ ॥
शब्दार्थ
मन्दर-उत्सङ्गे—मन्दर पर्वत कीनिचली ढाल पर; एकादश-शत-योजन-उत्तुङ्ग—१,१०० योजन ऊँचा; देवचूत-शिरस:—देवचूत नामक आम्रवृक्ष की चोटी से; गिरि-शिखर-स्थूलानि—जो पर्वताशृंगों के समान स्थूल हैं; फलानि—फल; अमृत-कल्पानि— अमृत की भाँति मधुर; पतन्ति—गिरते हैं ।.
अनुवाद
मन्दर पर्वत की निचली ढलान पर देवचूत नामक एक आम्रवृक्ष है, जिसकी ऊँचाई १,१०० योजन है। इस वृक्ष की चोटी से पर्वतशृंग जितने बड़े तथा अमृत तुल्य मधुर फल गिरते रहते हैं जिनका उपभोग दिव्य लोक के निवासी करते हैं।
तात्पर्य
विद्वान ऋषियों ने वायु पुराण में भी इस वृक्ष का उल्लेख किया है— अरत्नीनां शतान्यष्टावेकषष्ट्यधिकानि च।
फलप्रमाणमाख्यातमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभि: ॥
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥