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श्लोक 5.16.23  |
या ह्युपयुञ्जानानां मुखनिर्वासितो वायु: समन्ताच्छतयोजनमनुवासयति ॥ २३ ॥ |
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शब्दार्थ |
या:—जो (वे मधु धाराएँ); हि—निस्सन्देह; उपयुञ्जानानाम्—पान करने वालों के; मुख-निर्वासित: वायु:—मुखों से निष्कासित वायु; समन्तात्—चतुर्दिक्; शत-योजनम्—एक सौ योजन तक (आठ सौ मील); अनुवासयति—सुगन्धित बना देती है ।. |
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अनुवाद |
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इस मधु को पीने वालों के मुख से निकली वायु चारों ओर सौ योजन तक के भूभाग को सुगन्धित बना देती है। |
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