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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 16: जम्बूद्वीप का वर्णन  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  5.16.23 
या ह्युपयुञ्जानानां मुखनिर्वासितो वायु: समन्ताच्छतयोजनमनुवासयति ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
या:—जो (वे मधु धाराएँ); हि—निस्सन्देह; उपयुञ्जानानाम्—पान करने वालों के; मुख-निर्वासित: वायु:—मुखों से निष्कासित वायु; समन्तात्—चतुर्दिक्; शत-योजनम्—एक सौ योजन तक (आठ सौ मील); अनुवासयति—सुगन्धित बना देती है ।.
 
अनुवाद
 
 इस मधु को पीने वालों के मुख से निकली वायु चारों ओर सौ योजन तक के भूभाग को सुगन्धित बना देती है।
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥