श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 16: जम्बूद्वीप का वर्णन  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  5.16.24 
एवं कुमुदनिरूढो य: शतवल्शो नाम वटस्तस्य स्कन्धेभ्यो नीचीना: पयोदधिमधुघृतगुडान्नाद्यम्बरशय्यासनाभरणादय: सर्व एव कामदुघा नदा: कुमुदाग्रात्पतन्तस्तमुत्तरेणेलावृतमुपयोजयन्ति ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; कुमुद-निरूढ:—कुमुद पर्वत पर उगा हुआ; य:—वह; शत-वल्श: नाम—शतवल्श नामक वृक्ष (एक सौ तने होने के कारण); वट:—वट-वृक्ष; तस्य—उसके; स्कन्धेभ्य:—मोटी-मोटी शाखाओं से; नीचीना:—नीचे गिरकर; पय:— दुग्ध; दधि—दही; मधु—शहद; घृत—घी; गुड—गुड़; अन्न—अनाज; आदि—इत्यादि; अम्बर—वस्त्र; शय्या—बिस्तर; आसन—बैठने का स्थान; आभरण-आदय:—आभूषणों आदि से युक्त; सर्वे—सब कुछ, प्रत्येक वस्तु; एव—निश्चय ही; काम- दुघा:—समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली; नदा:—बड़ी नदियाँ; कुमुद-अग्रात्—कुमुद पर्वत की चोटी से; पतन्त:— गिरकर, बहकर; तम्—उस तक; उत्तरेण—उत्तर दिशा में; इलावृतम्—इलावृत वर्ष में; उपयोजयन्ति—सुखी बनाती हैं ।.
 
अनुवाद
 
 इसी प्रकार कुमुद पर्वत के ऊपर एक विशाल वट वृक्ष है, जो एक सौ प्रमुख शाखाओं के कारण शतवल्श कहलाता है। इन शाखाओं से अनेक जड़ें निकली हुई हैं, जिनमें से अनेक नदियाँ बहती हैं। ये नदियाँ इलावृत-वर्ष की उत्तर दिशा में स्थित पर्वत की चोटी से नीचे बहकर वहाँ के निवासियों को लाभ पहुँचाती हैं। इन नदियों के फलस्वरूप लोगों के पास दूध, दही, शहद, घी, राब, अन्न, वस्त्र, बिस्तर, आसन तथा आभूषण हैं। उनकी समृद्धि के लिए उन्हें जो भी पदार्थ चाहिए वे सब उपलब्ध हैं, जिससे वे सभी अत्यन्त सुखी हैं।
 
तात्पर्य
 मानवीय समृद्धि ऐसी आसुरी सभ्यता पर आश्रित नहीं होती जिसमें केवल गगन-चुम्बी प्रासाद और राजमार्ग पर दौडऩे वाले बड़े-बड़े स्वचालित वाहन तो हों, किन्तु वह संस्कृति तथा ज्ञान से शून्य हो। प्राकृतिक पदार्थ ही इसके लिए पर्याप्त होते हैं। जहाँ दूध, दही, मधु, अन्न, घी, गुड़, धोती, साड़ी, बिस्तर, आसन तथा आभूषण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों, वहाँ के वासी ही वास्तव में ऐश्वर्यवान् होते हैं। जब नदी अपने प्रभूत जल की बाढ़ से भूखण्ड को डुबो देती है, तो ये सारी वस्तुएँ उपजाई जा सकती हैं और इस तरह किसी प्रकार का अभाव नहीं दिखता। किन्तु, यह सब कुछ यज्ञ- अनुष्ठान पर निर्भर करता है, जैसाकि वैदिक शास्त्रों में कहा गया है—

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ॥

“सभी प्राणी अन्न पर निर्भर रहते हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ करने से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत कर्म से होती है।” भगवद्गीता (३.१४) में इन नियमों का उल्लेख है। यदि मनुष्य पूर्णरूप से कृष्णभावनामृत में इन नियमों का पालन करे तो मानव समाज सम्पन्न होगा और सभी मनुष्य इस लोक में तथा परलोक में सुखी रहेंगे।

 
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