इस सम्बन्ध में लघुभागवतामृत में प्राप्त निम्नलिखित उद्धरण दृष्टव्य है— पाद्मे तु परमव्योम्न: पूर्वाद्ये दिक्चतुष्टये। वासुदेवादयो व्यूहश्चत्वार: कथिता: क्रमात् ॥ तथा पादविभूतौ च निवसन्ति क्रमादि मे। जलावृतिस्थवैकुण्ठस्थित वेदवतीपुरे ॥ सत्योर्ध्वे वैष्णवे लोके नित्याख्ये द्वारकापुरे। शुद्धोदादुत्तरे श्वेतद्वीपे चैरावतीपुरे ॥ क्षीराम्बुधिस्थितान्ते क्रोडपर्यंकधामनि सात्वतीये क्वचित् तन्त्रे नव व्यूहा: प्रकीर्तिता:। चत्वारो वासुदेवाद्या नारायणनृसिंहकौ ॥ हयग्रीवो महाक्रोडो ब्रह्मा चेति नवोदिता:। तत्र ब्रह्मा तु विज्ञेय: पूर्वोक्तविधया हरि: ॥ “पद्मपुराण में यह कहा गया है कि आध्यात्मिक लोक में भगवान् स्वत: समस्त दिशाओं में विस्तार करते हैं और वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध रूप में पूजित हैं। वे ही भगवान् इस भौतिक जगत में जो उनकी सृष्टि का चतुर्थांश हैं श्रीविग्रह रूप में प्रदर्शित किये जाते हैं। इस भौतिक जगत की चारों दिशाओं में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध भी उपस्थित रहते हैं। इस भौतिक जगत में जल के नीचे वैकुण्ठ लोक है, जिसमें वेदवती नामक स्थान है जहाँ वासुदेव स्थित है। एक अन्य लोक, जिसे विष्णुलोक कहते हैं, सत्यलोक के ऊपर स्थित है, जहाँ संकर्षण उपस्थित हैं। इसी प्रकार द्वारकापुरी में प्रद्युम्न का आधिपत्य है। श्वेतद्वीप में क्षीर सागर है। इसी सागर के मध्य में ऐरावती पुर नामक स्थान है जहाँ अनन्तशायी अनिरुद्ध हैं। कतिपय सात्वत तंत्रों में नौ वर्षों एवं उनमें पूजित प्रधान श्रीविग्रहों का वर्णन मिलता है। वे है—वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, नृसिंह, हयग्रीव, महावराह तथा ब्रह्मा।” इस प्रसंग में स्वयं ब्रह्मा ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। जब कोई जीव ब्रह्मा बनने के योग्य नहीं पाया जाता है, तो भगवान् स्वयं ब्रह्मा का स्थान ले लेते हैं। तत्र ब्रह्मा तु विज्ञेय: पूर्वोक्तविधया हरि:। यहाँ पर वर्णित ब्रह्मा साक्षात् हरि हैं। |