दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ “मेरी यह दैवीशक्ति अर्थात् त्रिगुणमयी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सुगमतापूर्वक इससे तर जाते हैं।” भगवान् के मायावश होकर कार्य करनेवाली समस्त बद्ध जीवात्माएँ देह को ही स्वयं मानकर निरन्तर ब्रह्माण्ड में घूमती रहती हैं और विभिन्न योनियों में जन्म धारण करके नाना प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करती रहती हैं। कभी-कभी वे इन समस्याओं से निराश होकर ऐसी विधि निकाल लेती हैं, जिससे वे इस बन्धन से निकल सकें। दुर्भाग्यवश ऐसे तथाकथित शोध करनेवाले श्रीभगवान् तथा उनकी माया से अपरिचित रहकर अंधकार में भटकते फिरते हैं और कभी बाहर निकल नहीं पाते। तथाकथित विज्ञानी और उन्नतिशील शोधकर्ता जीवन के कारण का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं। वे इसकी ओर ध्यान नहीं देते कि जीवन का सृजन पहले से हो रहा है। यदि वे जीवन का रासायनिक संघटन ज्ञात कर लेते हैं तो इसमें उनका क्या श्रेय है? उनके सभी रासायनिक पदार्थ आखिर पाँच तत्त्वों—क्षिति, जल, पावक, गगन तथा समीर—के विभिन्न रूपान्तर ही तो हैं। जैसा भगवद्गीता (२.२०) में कहा गया है जीवात्मा का कभी सृजन नहीं होता (न जायते म्रियते वा कदाचिन् )। वैसे पाँच स्थूल भौतिक तत्त्व, तीन सूक्ष्म भौतिक तत्त्व (मन, बुद्धि और अहं) तथा शाश्वत जीवात्माएँ हैं। जीवात्मा जब किसी विशेष प्रकार की देह की कामना करता है, तो श्रीभगवान् की आज्ञा से भौतिक प्रकृति से उस देह की उत्पत्ति होती है जो परम-ईश्वर द्वारा संचालित यंत्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। भगवान् जीवात्मा को एक विशेष प्रकार की यांत्रिक देह प्रदान करता है और जीवात्मा को सकाम कर्मों के नियमानुसार इस देह के साथ कार्य करना होता है। कर्मों का विवरण इस श्लोक में दिया गया है—कर्म-पर्वणी मायाम्। जीवात्मा यंत्रारूढ़ है और श्रीभगवान् की आज्ञानुसार वह उस यंत्र का संचालन करता है। आत्मा के एक देह से दूसरे में देहान्तरण का यही रहस्य है। इस प्रकार जीवात्मा इस भौतिक जगत में सकाम कर्मों में फँस जाता है। जैसाकि भगवद्गीता (१५.७) में पुष्टि की गई है—मन: षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति—“जीवात्मा मन समेत छहों इन्द्रियों के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है।” उत्पत्ति तथा लय की समस्त क्रियाओं में जीवात्मा अपने सकाम कर्मों में फँसा रहता है जो माया के द्वारा सम्पादित होते हैं। वह भगवान् द्वारा संचालित कम्प्यूटर के समान है। तथाकथित विज्ञानियों का कथन है कि प्रकृति मुक्त भाव से कार्य करती है, किन्तु वे प्रकृति की व्याख्या नहीं कर पाते। प्रकृति भगवान् द्वारा संचालित यंत्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। संचालनकर्ता को जान लेने पर मनुष्य जीवन की समस्याएँ हल हो जाती हैं, जैसा श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता (७.१९) में कहा है— बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ॥ “बहुत से जन्म-जन्मांतरों के अन्त में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरुष मुझे सब कारणों का परम कारण और सर्वव्यापक जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा बड़ा दुर्लभ है।” अत: बुद्धिमान व्यक्ति भगवान् की शरण में जाता है और इस प्रकार माया के फंदे से निकल जाता है। |