तत्र चतुर्धा भिद्यमाना चतुर्भिर्नामभिश्चतुर्दिशमभिस्पन्दन्ती नदनदीपतिमेवाभिनिविशति सीतालकनन्दा चक्षुर्भद्रेति ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ (मेरु पर्वत पर); चतुर्धा—चार धाराओं में; भिद्यमाना—विभाजित होकर; चतुर्भि:—चार; नामभि:—नामों से; चतु:-दिशम्—चारों दिशाओं में (पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण); अभिस्पन्दन्ती—वेग से प्रवाहित होकर; नद-नदी-पतिम्— समस्त बृहद् नदियों का आगार (सागर); एव—निश्चय ही; अभिनिविशति—प्रविष्ट करती है; सीता-अलकनन्दा—सीता तथा अलकनन्दा; चक्षु:—चक्षु; भद्रा—भद्रा; इति—इन नामों से विख्यात ।.
अनुवाद
मेरु पर्वत की चोटी पर गंगा नदी चार धाराओं में विभक्त हो जाती है और प्रत्येक धारा अलग-अलग दिशाओं की ओर (पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण) वेग से प्रवाहित होती है। ये धाराएँ सीता, अलकनन्दा, चक्षु तथा भद्रा नाम से विख्यात हैं और ये सब सागर की ओर बहती हैं।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥